Eklavya – The great archer & cousin of Krishna:

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The story of Eklavya and him cutting off his bow-wielding thumb and offering it to Dronacharya as ‘Guru Dakshina’ is 1of the most famous stories in Mahabharata.
But many people don’t know what happened to him after this incident. And how and why Eklavya was killed by Krishna?
Eklavya was the Prince of Nishadha. He was the son of Devashrava who was the brother of Kunti and Vasudev.

But for some reasons , he was abandoned by his father in his infant stage.

Eklavya was the cousin of Lord Krishna, the Pandavas and to Shishupala.
When he was young, he was lost in the forest and was found by Vyatraj Hiranyadhanush, King of Nishadha and was adopted by him. 

After his father’s death, he became the young prince of Nishadha, an alliance of jungle tribes (Adivasi) in ancient India.
Though he did not have his right thumb, he was still considered to be one of the greatest archers in Mahabharata. He is also said to be a great friend of Duryodhana. 

Ekalavya and his clan, from the times of Nishada Vyatraja Hiranyadhanus, were great supporters of Jarasandha.
Jarasandha was the arch-enemy of Krishna, which made Ekalavya his enemy too, in spite of the fact that they were cousins. 

He worked as an archer of King Jarasandha. When Jarasandha planned an attack on Mathura, he was aided by him.
Now there are many versions of the story of how Krishna killed Eklavya.

Rukmini was the daughter of Bhishmaka, the king of Vidarbha. He was the vassal of King Jarasandha of Magadha.

Rukmini fell in love with Krishna and wanted to marry him.
Her parents also wanted to marry Rukmini to Krishna but Rukmi, brother of Rukmini strongly opposed it.

Rukmani does not want to earn the wrath of emperor Jarasandha, who was the arch-enemy of Krishna.
Instead, he wanted her to marry his friend Shishupala, the crown prince of Chedi, who was also the close associate of Jarasandha.

Rukmini learned this and was horrified and immediately send the message to Krishna.
She asked Krishna to come to & kidnap her to avoid a battle where her relatives may be killed.

According to some, Eklavya helped Jarasandha and Shishupala by chasing Rukmini while she eloped with Krishna.
Enraged, Krishna picked up a stone and hurled it at Eklavya, killing him.
Another story is ..

During Yudhisthira’s Rajasuya Yaga, Jarasandha was killed by Bhima by the support of Lord Krishna.

Agitated on the death of his friend and king, Eklavya coveted to take avenge by killing Krishna and every single Yadava in Dwaraka.
During the attack on Dwarka, he was killed by Krishna.

But some believe that he survived in this battle against Yadavas and somehow reached the court of Duryodhana and was greeted by him.
Duryodhana made him the king of all forests in Hastinapura.

So under the order of Duryodhana, Eklavya tried to kill Samba, son of Krishna. Then Krishna broke his skull from a rock and kills him.
It is also believed that Krishna gave him a boon at his death that he would be reborn to kill Dronacharya. Accordingly, he was born as Drishtadyumna and finally killed Dronacharya.
In Drona-Parva, Krishna reveals that he let people like Jarasandha, Shishupala and Eklavya be killed.

He told that if they were not killed, later on during the war, they would have taken the side of Kauravas and that would have obstructed the establishment of Dharma.
महाभारत में उल्लेखित हज़ारों चरित्रों की मीमांसा की जाती है तो उसमे एकलव्य को लेकर गुरु द्रोणाचार्य के चरित्र पर सबसे ज्यादा प्रश्न खड़े होते है। गुरु द्रोणाचार्य को लेकर सबसे ज्यादा निशाना वामपंथियों ने साधा है और दशकों से एकलव्य द्रोणाचार्य को लेकर अलग ही नरेटिव गढ़ा है।
रवि साहब की फेसबुक वाल से लिया गया है ये लेख जो किसी हदतक आंखें खोलने का काम करेगा।
एकलव्यकाअंगूठा - एकऔरदृष्टिकोण

श्वेत वस्त्र पहने हुए, अनाहत तक पहुंचती श्वेत दाढी, कंधे पर जनेऊ और मुख पर अदम्य तेज युक्त द्रोण ने अपने श्वान की ओर गंभीर दृष्टि से देखा, "ले चलो जहां ये बाण मिला तुम्हें "
थोडी ही देर पहले वे जब अपने आश्रम में अपने कुछ शिष्यों को युद्धकला के बारे में समझा रहे थे,उनका श्वान अपने मुंह में एक बाण दबाए आ खडा हुआ था। ढाई पल का बाण और फर के स्थान पर रंगबिरंगे पंख, द्रोण के माथे पर लकीरें खिंच गईं।
'इसके लिये कम से कम साढे तीन हाथ का धनुष उपयोग होगा' उन्होंने मन मे ही सोचा 'कौन होगा वो! ' उन्होने अश्वत्थामा को साथ चलने का संकेत किया।
उनकी जानकारी में कम ही ऐसे योद्धा थे जो इस भार के धनुष को चला सकते थे, हस्तिनापुर के ऐसे सभी योद्धाओं से वे परिचित थे, ये बाण उनमें से किसी का नहीं था,और गुरूकुल के इस निषिद्ध क्षेत्र में किसी बाहरी योद्धा की उपस्थिति उनके मन मे संदेह उत्पन्न कर रही थी।
दो घडी वन में चलने के पश्चात थोडे से खुले स्थान पर एक वृक्ष के तने पर चिन्ह बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास करता नवयुवक दिखाई दिया।
उनके अनुभवी नेत्रों ने पूरे परिसर को ताड लिया, वन के बीच नैसर्गिक कम घना करीब स्थान जिसमें आवश्यकतानुसार झाड़ियों को काट कर उत्तर से दक्षिण की और लगभग 200 गज का लंबोतर मैदान बना लिया गया था, जिसकी चौडाई 50 हाथ की थी, धनुर्विद्या के अभ्यास के लिए उत्तम स्थान, द्रोण के मन में आया।
पश्चिम की ओर एक समतल शिला पर पूर्व की ओर मुख किये मिट्टी की अनगढ़ प्रतिमा स्थापित थी जिसका पूजन किया गया था, सामने रखी चौकी पर वन में उत्पन्न होने वाले पुष्प और फलादि दिख रहे थे।
नवयुवक की पीठ थी उनकी ओर, कुछ श्यामल वर्ण, कमर पर वल्कल, पसीने से भीगे ऊपरी शरीर पर कुछ मालाएं, घने, लंबे जटाओं की तरह बिखरे बाल, कसा हुआ शरीर, नग्न पीठ पर दिखाई देती रीढ की हड्डी की मजबूती कठिन परिश्रम का संकेत दे रही थी। उसी समय नवयुवक ने संधान किया और प्रत्यंचा खींची।
बिजली की तेजी से पता भी नहीं चला कब बाण प्रत्यंचा तक पहुंचा, कोहनी पीछे आई और धनुष पुनः अपने स्थान पर। द्रोणाचार्य के अधरों पर एक हल्की सी हंसी की किरण लहरा कर लुप्त हो गई जिसे अश्वत्थामा नहीं देख पाए।
हस्तिनापुर के राजपरिवार के युद्ध शिक्षा के आचार्य थे वे, गुरू थे युद्धकला के, विश्व के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में से एक।
पत्तों के चरमराने की ध्वनि सुनकर नवयुवक पलटा, गोल चेहरा, लंबी सुतवां नाक, बडे़ बड़े और काले नेत्र, चौड़ा माथा।माथे पर एक मुकुट की तरह एक ओर पक्षियों के रंगीन पंखों और कौड़ियों से सजा मोटा धागा बंधा था जो केशों को चेहरे के सामने आने से रोक भी रहा था ।
अचानक युवक के नेत्र आश्चर्य से फैले। हड़बड़ा कर वो समीप आ कर पृथ्वी पर साष्टांग हो गया।
द्रोण ने सौम्य स्वर में आदेश दिया, उठो पुत्र, कौन हो तुम आचार्य कौन हैं तुम्हारे?
युवक उठा, अपने दाहिने हाथ से मुख ढंकते हुए कहा उसने, " निषादराज पुत्र एकलव्य हूं औके आप ही मेरे आचार्य हैं।"
द्रोण की एक भौंह किंचित् हिली, "अर्थात?"

"सात वर्ष पूर्व मेरे पिता मुझे आपके पास धनुर्विद्या सिखाने लाए थे, किंतु हस्तिनापुर राजपरिवार के ही कुल को शिक्षा देने की वचनबद्धता के कारण आपने असमर्थता दिखाई थी। उसके पश्चात मैने पांच वर्ष तक वन के श्रेष्ठ आचार्यों से शिक्षा ली।
वहां से सीखकर दो वर्ष पहले एक दिन आपके आश्रम के पास की ही मिट्टी लेकर आपकी प्रतिमा बनाई, आपको दूर से ही देखकर संकल्प लिया और आपको अपना गुरू स्वीकार किया, और प्रतिमा यहीं स्थापित कर के आप ही के समक्ष नित्य अभ्यास करता हूँ । "
द्रोण ने एक गहरी सांस ली, कुछ क्षण सोचा और एकलव्य से कहा, "तो परीक्षा दो।"

अश्वत्थामा ये सब देखकर कुछ भी न समझ पा रहे थे, केवल मूकदर्शक बने हुए थे।

पारंपरिक योद्धाओं के समर्पण के ढंग से एक घुटना भूमि पर टिकाकर सिर झुकाते हुए कहा एकलव्य ने "आज्ञा दें"
तुम्हें एक ही स्थान पर सात बाण चलाने हैं। "जैसी आज्ञा! " उठ गया एकलव्य।
द्रोण उन दोनों को वहीं रोककर और एकलव्य से खड़िया लेकर आगे बढे और श्वान को अपने साथ आने का संकेत कर दिया। करीब सौ कदम आगे जाकर एक मोटे से पेड़ के तने पर निशान बनाया, श्वान से कुछ कहा।
फिर एकलव्य को संधान करने का संकेत किया।
एकलव्य ने प्रत्यंचा पर चढा कर प्रक्षेपण कर दिया।
बाण नहीं पहुंचा चिन्ह तक, एकलव्य ने अचंभित नेत्रों से देखा, वो तो श्वान के मुख में दबा है, द्रोण का दूसरा संकेत, दूसरे बाण का भी वही हुआ, सातों बाण अंत में एकसाथ श्वान के मुख में दबे हुए थे।
अश्वत्थामा हतप्रभ अवस्था में थे, एकलव्य की अवस्था ऐसी थी जैसे रक्त निचुड़ गया हो, द्रोण समीप आ रहे थे, उनके नेत्रों में दया, करुणा के भाव स्पष्ट देखे जा सकते थे। अश्वत्थामा की ओर देखा उन्होंने, "श्वान का मुख बंद हो गया है बाणों से, निकाल दो"
"अभी कम से कम तीन वर्ष के अभ्यास की और आवश्यकताहै पुत्र, हमारा आदेश है अभ्यास बंद नहीं करना।" उन्होने एकलव्य के कंधे पर हाथ रखा।

एकलव्य के नेत्रों से जलप्रवाह हो रहा था, उसके मुख से कुछ नहीं निकल पाया।
" एक और आदेश है, ये अभ्यास तुम्हें यहां नहीं विदर्भ देश में जाकर करना होगा। किंतु हमारी गुरुदक्षिणा का क्या होगा?"

एकलव्य ने पुनः हाथ से मुख ढंककर भरी हुई वाणी में कहा, "कहें आचार्य, प्राण सहित सर्वस्व अर्पण हैं ।"
कठोर से भाव ठहर गए द्रोण के नेत्रों में, मुख से शब्द निकले जो एकलव्य और अश्वत्थामा के सिर पर बिजली की तरह गिरे, "हमें तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए गुरुदक्षिणा में एकलव्य! "
एकलव्य अवाक् द्रोण की ओर देख रहा था।
"किंतु पिताजी", अश्वत्थामा ने कुछ कहने का प्रयास किया, हाथ के संकेत से रोक दिया द्रोण ने, "निर्णय करो एकलव्य " शांत स्वर था द्रोण का।
एकलव्य ने कमर से कटार निकाली और एक ओर बढ गया , एक पौधे से कुछ पत्तियां तोडीं, पत्थर पर कुचलकर चटनी जैसी बनाकर एक पत्ते पर रख ली। फिर वहीं पड़े पत्ते उठाकर एक दोना बनाया, तने पर रखा और तीक्ष्ण कटार से एक ही झटके में अपना अंगूठा काट कर डाल दिया उसमें।
दांत भींच रखे थे उसने, मुख पर मरणांतक कष्टके भाव आकर लुप्त हो गए। तुरंत पत्ते पर रखी चटनी पत्ते सहित घावपर रखकर दबा दी, बाएं हांथ से दोना उठाया और द्रोणाचार्य के पास लाकर उनके चरणों में रख दिया और स्वयं भी वहीं शीश रख दिया।
द्रोण ने उठाया उसे कंधे से पकड़ कर, और बोले, "अब विलंब उचित नहीं, विदर्भ की ओर प्रस्थान करो।"
एकलव्य ने नतमस्तक होकर प्रणाम किया।

आश्रम की ओर लौटते हुए मार्ग में इस पूरे घटनाक्रम से उद्विग्न अश्वत्थामा ने पूछ ही लिया, "पिताजी ...."
"हम जानते हैं पुत्र तुम जानना चाहते हो कि ये सब क्यों किया हमने" कहा द्रोण ने, "तुम स्वयं एक योद्धा हो, जानते हो प्रत्यंचा चढाने के तीन तरीके होते हैं।
पहला निकृष्ट, जिसमें अंगूठे और तर्जनी से पकड़ कर तीर चलाया जाता है, सही लक्ष्य भेदन के लिये ये उचित है, जैसे आखेट के लिये, किंतु युद्ध के लिये नहीं, इससे बाण की गति मंद हो जाती है। वर्षों तक एकलव्य ने वनवासी धनुर्धरों से सीखा है अतः वो इसी का उपयोग करता है।
दूसरा मध्यम, जिसमें तर्जनी और मध्यमा से संधान किया जाता है और अंगुष्ठ को मोड़ कर तर्जनी पर दबाव बनाया जाता है, और श्रेष्ठ जहां अंगूठे का बिलकुल उपयोग नहीं होता, श्रेष्ठ धनुर्धर इसी का उपयोग करते हैं।
एकलव्य ने मुझे गुरू स्वीकार किया, गुरू और इष्ट भाव से बंधे होते हैं। हम स्वयं राजकुल से भिन्न किसी अन्य को न सिखाने के लिये वचनबद्ध हैं। यदि एकलव्य को बता देते कि अंगूठे का उपयोग न करे तो वचन टूटता, न बताते तो गुरू शिष्य की मर्यादा भंग होती।
तीन वर्ष के अभ्यास से एकलव्य श्रेष्ठ मार्ग से उत्तम संधान कर सकेगा। इससे भिन्न कोई मार्ग नहीं था। उसका यहां वन से दूर जाकर अभ्यास भी उचित है ताकि एकांगी धनुर्विद्या से बहुआयामी की ओर गतिमान हो सके, श्रेष्ठ बनने के लिये स्पर्धा चाहिये जो वन में कैसे मिलेगी? "
अश्वत्थामा ने दुःखी होकर द्रोण की ओर डबडबाई दृष्टि से देखा, " किंतु इस दक्षिणा के कारण आप का सम्मान?"
"ज्ञात है अश्वत्थामा, संसार के अंत तक हमें क्रूर और निर्दयी गुरू के रूप में स्मरण करेगा, किंतु गुरू होने के नाते स्वयं के सम्मान और शिष्य की भलाई में से हमने द्वितीय को चुना और इसपर हमें कोई दुःख नहीं है....
..... गुरू को सदैव स्वयं से अधिक शिष्य प्रिय होता है, और एकलव्य की गुरूभक्ति सदा के लिये उदाहरण बन गई है, धन्य होते हैं वो गुरू जिन्हें ऐसे शिष्य प्राप्त होते है।
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