आचार्य शंकर भगवतपाद के श्रीचरणों में वक्तव्य पुष्प समर्पित:-

सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों के पास समाज सुधार के नाम पर शास्त्रीय जीवनशैली को रुढ़िवादिता कहने और पूर्वजों को रुढ़िवादी कहने की प्रचुर सामग्री, दुस्तर्क, भ्रामक तथ्य, मनगढ़त प्रमाण अवश्य मिलेंगे जो की

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इनके संगठनात्मक विस्तार में सहायक सिद्ध होते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों द्वारा समाज सुधार के नाम पर जनता में शास्त्र और शास्त्रीय जीवनशैली के प्रति अनास्था अश्रद्धा उत्पन्न करने के फलस्वरुप समाज में शास्त्रीय जीवनशैली, संस्कारों, परंपराओं के प्रति अवज्ञा भाव आया और

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गुरु परम्परा से विमुख होकर द्रुत गति से चारित्रिक, नैतिक, आध्यात्मिक पतन, स्वेच्छाचारिता, उन्माद,भोग,काम, व्यसन,चरित्रहीनता की वृद्धि हुई।आज कौन इन तथ्य, प्रमाण, आंकड़ो, साक्ष्यों को झुठला सकता है की भारत की 30% आबादी नियमित रुप से शराब सेवन करने लगी है यह रिपोर्ट WHO की है।

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NCRB डेटा समाज में हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार, झगड़े, झांसे, विवाद, जानलेवा हमले, अपराध की तीव्रगति से बढ़ने की पुष्टी करते हैं। आंकडे बताते हैं की हिन्दूओं की प्रति 40 में से 8 शादियों में तलाक हो रहे हैं। संयुक्त परिवार तो पहले ही पर्सनल लाईफ की स्वच्छंदता की भेंट

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चढ़ गये और टूट गये। पर्सनल लाईफ का भोगी बनते जा रहे समाज को माता पिता बोझ लगने लगे और शास्त्र मर्यादा को ना मानने वाला समाज अपने रोते बिलखते और गिड़गिड़ाते हुऐ मां बाप को घसीटकर ले जाकर वृद्धाश्रमों में छोड़कर आ रहा है। वैवाहिक मूल्यों के प्रतिरोध

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स्वरुप युवाओं के ऐसे वर्ग भी अस्तित्व में अाये जो साथ रहने के लिये विवाह को आवश्यक नहीं मानते अर्थात बिना विवाह के भी महिला पुरुष साथ रह कर संबंध स्थापित कर सकते हैं जिसे सामान्य भाषा में live in कहा जाता है जिसका आयात पाश्चात्य जगत से हुआ। 377-497 को वैधता प्राप्त हो गई है।

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कामुकता, अश्लीलता, चरित्रहिनता, व्यभिचार को युवा मनोरंजन के रुप में स्वीकार कर रहे हैं । हिन्दू तीर्थ पर्यटन स्थल में रुपांतरित किये जा रहे हैं। सात्विकता आहार सामाजिक जीवनशैली से जा रहा है। अवसाद, तनाव, क्लेश के चलते अात्महत्या की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं।

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कुल मिलाकर यह सब समस्याऐं और विकृतियां समाज में तब तो नहीं थीं जब समाज परम्पराप्राप्त गुरु परम्परा से दिक्षित शिक्षित होता था और धर्मशास्त्रों का जीवन में स्थान था और जब यह व्यवस्था प्रचलन में थी तब व्यक्ति यह मानता था की उसके कर्मों का दण्ड उसे

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उसे इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में तो प्राप्त होगा ही, शास्त्रीय जीवन में आस्था रखने वाला समाज सात्विक मूल्यों को प्रधानता देता था जिससे किसी की हानि नहीं होती थी क्योंकी उस विचारधारा में एक चींटी तक का जीवन सुरक्षित मूल्यवान है। परम्पराप्राप्त

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धर्माचार्यों और गुरु परम्परा का स्वयं को विकल्प मानने वाले सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों ने शास्त्र और शास्त्रीय
जीवनशैली को रुढ़िवाद कहकर समाज को शास्त्र और गुरु परम्पराप्राप्त शास्त्रीय सदाचारों, संस्कारों के प्रति समाज में जो अवमानना अवज्ञा भाव उत्पन्न किया जिसके परिणाम

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प्रत्यक्ष हैं उसकी समीक्षा स्वस्थ मन से कर लेना चाहिये क्योंकी प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता होती नहीं हेै।
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