आइए आज आपको अपने घरों के बाहर से लुप्त हुए चौतरे, जिनको आप चबूतरे कहते हैं, की कहानी सुनाता हूं।
बुंदेलखंड जहां का मैं रहने वाला हूं, वहां हर घर के सामने यही होता था।

डॉ ० एम०एम० पांडेय की लिखी रचना का संपादित अंश है ये जो आपको एक दूसरी दुनिया में ले जाएगा।
क्या कभी आपने सोचा है कि कुछ दशक पूर्व तक हमारे आस-पडौस ही नहीं बल्कि समाज में जो एकजुटता, एक दूसरे के प्रति सामंजस्य की भावना हुआ करती थी, उसके तीव्रगति से पतन के कारण क्या हैं?
मैं मानता हूँ कि उनमें से एक महत्वपूर्ण कारण है – हमारे घरों के बाहर से चबूतरों का लुप्त हो जाना। महानगरीय संस्कृति में जीवनयापन करने वाले, बगल के फ्लैट में कौन है इसकी जानकारी न रखने वाले आज के युवाओं को कदाचित इस बात का बोध भी न हो कि चबूतरा होता क्या था।
हमारे झांसी में “चबूतरे” को “चौंतरा” कहते थे जो प्रत्येक घर का सर्वप्रथम हिस्सा हुआ करता था और उसके बाद होती थी “पौर”।
जहाँ बब्बा (दादाजी) या दादी, एक और छोटे से दरी या गलीचा बिछे “एल शेप “ के चौंतरे पर एक किनारे मिट्टी की बनी तकिया जैसी स्थायी आकृति पर हमेशा अधलेटे से टिके हुए बैठे बाहर की तरफ नज़र रखते थे। उनका एक बड़ा काम आतेजाते लोगों से निरंतर संवाद बनाये रखना भी था।
पौर के बाद या बगल में “बैठक” होती थी जिसे हम “बैटका” कहते थे। उसके बाद एक छोटी सी ऊँची जगह थी जिसे शायद मंच की तरह उठा होने से “मंचपौरिया” (छोटी सी पौर) कहा जाता था। यहाँ जूते चप्पल यहाँ से आगे निषिद्ध होते और इन्हें करीने से पंक्तिबद्ध रखा जाता था।
उसके बाद “आँगन” जिसके बीचोंबीच “तुलसीघरा” होता था। नीचे कमरे होते तो उन्हें इस तरह नाम दिए जाते थे – “मड़ा” (घर का भण्डार इसी में था), गायों का कमरा – “सार”, शौच वाला कमरा वाला कमरा – “टट्टी” और नहाने वाला कमरा – “गुसलखाना” कहलाता था।
परंतु अधिकांश लोग आँगन में ही नल के नीचे नहाते थे। उन दिनों चौबीसों घंटे नगरपालिका का शुद्ध पानी फुल फ़ोर्स से आता था। जाड़ों में सुबह सुबह ही पीतल की बड़ी सी “नाद” में उस जगह पानी भरकर रख दिया जाता जहाँ सूर्य की पहली किरण आती हो।
स्कूल जाने के पूर्व तक पानी प्राकृतिक गुनगुना होकर स्नान योग्य हो जाता। ऊपर की मंजिलों पर पच्चीस तीस फुट तक लंबे बड़े बड़े कमरों को “अटारी” या "अटरिया" कहा जाता था।
उनका बाकायदा नामकरण इस तरह होता – जहाँ “ठाकुरजी” का सिंहासन विराजमान था उसे “पूजा वाली अटारी” कहते थे। जहाँ भोजन बनता, खाया जाता उसे – “चौका वाली अटारी” और बाहर का कमरा जिसकी छत पत्थर की छत्तियों की थी को – “छत्ती वाली अटारी” कहते थे। कभी कभी दुछत्ती भी बन जाया करती थी घरों में।
ऊपर की छत को “अटा” कहते थे| आँगन से सटी कवर्ड जगह पर ऊँची पटरी पर पानी के मटके रखे जाते जिसे "घिनौची" कहते थे।

सभी कमरों और अटारियों में दीवारों में खोखली पोल बनाकर बड़ी- बड़ी "बुखारियाँ" होती थीं।
घर के पीछे के हिस्से में कच्चे कमरे और खाली जगह थी जिसे "बाड़ा" कहते और यहाँ भूसा, चारा और जलाऊ लकड़ी इत्यादि का भंडारण किया जाता। सुबह सुबह बुरादे की सिगड़ी में कूटने का काम यहीं होता था।
घरों के बाहर “चौंतरे” निजी होते हुए भी सबके लिए सुलभ थे, उपलब्ध थे। सुबह इन्हें धोकर गोबर से लीप दिया जाता लोगों का बैठना, आवागमन शुरू हो जाता था।
आवाज़ें लगानी शुरू हो जाती थी।

किसना के चाचा....
लल्लू के डूकरा....
मीनू के पापा....
सब स्टील के गिलास में चाय लेकर निकल पड़ते थे।
शाम होते ही आसपास के घरों की महिलायें एक दूसरे के चबूतरों पर बैठकर सप्रेम वार्तालाप करतीं, कहीं कहीं भजन और सत्संग हुआ करते।
हारमोनियम और मंजीरा बाहर आ जाते।

बच्चे एक चबूतरे से दूसरे पर उछलते कूदते खेला करते, न तो जाति का भेद होता और न ही लड़का लड़की का।
छुट्टियों या फुर्सत के दिनों में इन्हीं चबूतरों पर, अष्टा चंगा पौ, शतरंज और चौपड़ की लंबी लंबी बाजियाँ खेलीं जातीं जिनमें खेलने वालों से अधिक उत्साह दर्शकों में दिखाई देता।

इन्हीं चबूतरों पर इतवार को "नाऊ कक्का" आकर उंकडूं बैठकर हमारे बाल काटते और मोहल्ले भर की चुगली करते थे।
चबूतरे वाली दुनिया से आपको अलग ले चलता हूं ज़रा अब... https://twitter.com/Shrimaan/status/1295900749860225024?s=19
सफर पर चलें ?? https://twitter.com/Shrimaan/status/1071431382025482241?s=19
आतेजाते लोग, विशेषकर महिलायें क्षणभर के लिए रुककर चबूतरों पर बैठी महिलाओं से कुशलक्षेम इस तरह पूछतीं – “काय जिज्जी, क्यांय खों चलीं? या फिर “काय काकी, अब तुमाई तवियत कैसी है या कक्का अब कैसे हैं?

एक रिश्ता सा होता था पूरे मोहल्ले का..
काका, काकी, दाऊ, जिजजी..
बच्चे खेलते कूदते बेधड़क किसी के भी घर में घुस जाया करते, खा पी लिया करते। किसी के घर अतिथि का आगमन होता तो टेशन से प्रेमनगर की तरफ तांगे का रुख होते ही कम से कम चार मोहल्लों के लोगों को खबर हो जाती कि फलाने के मामाजी आ गए या फलाने के लाला (दामाद) मौड़ी की विदाई कराने आ गए।
ये सब चबूतरों पर बैठे या पुरुष या महिलाओं के कारण ही संभव हो पाता था।
सारी महिलायें उन घरों में पहुँचकर दामाद से अनुरोध करने लग जातीं कि बिटिया को अभी महीना खांड़ और मायके में रहने दें, ऐसी क्या जल्दी है कि डेढ़ महीने में ही विदा कराने आ गए ?
इन की सुनी भी जाती थी...
जब दामाद जी नहीं मानते तो दामादजी को ही दस पंद्रह दिन अतिरिक्त रोकने का प्रयास किया जाता था। जब बेटी ससुराल जाने लगती तो सारे चबूतरों पर डबडबाई आँखें लिए खड़ी महिलायें गले मिलकर उसे विदा करतीं।

बिन्नू सारे मोहल्ले की होती थी ...
किसी के भी घर में शादी विवाह, फलदान, टीका,तिलक, जैसे अवसरों के कार्यक्रम के लिए चबूतरों की कतारें सर्वसुलभ होतीं थी। बारात घर जैसा कुछ नहीं होता था। होटल में बाराती को टिकाना उसका अपमान होता था।
पूरा मोहल्ला एक घर हो जाता था...
गली के एक कौने से दूसरे कौने तक चबूतरों पर पंगतें सज जातीं, परस्पर सहयोग करने की होड़ सी लगी रहती थी। चबूतरों की रौनक देखते ही बनती थी। कई सप्ताह यहाँ उत्सव का माहौल बना रहता।
चलिए एक पंगत में ले चलता हूं आपको... https://twitter.com/Shrimaan/status/1048541820857151488?s=19
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