Here is what shakuntalaa devii says to raajaa duShyanta about the importance of a dharmapatnii. About a dozen shlokas I'd copied last year from Mbh https://twitter.com/advedtak/status/1328662355274727425
सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता ॥

वही भार्या है, जो घरके काम-काजमें कुशल हो । वही भार्या है, जो संतानवती हो । वही भार्या है, जो अपने पतिको प्राणों के समान प्रिय मानती हो और वही भार्या है, जो पतिव्रता हो ।
अर्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा ।
भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मूलं तरिष्यतः ॥

भार्या पुरुषका आधा अंग है । भार्या उसका सबसे उत्तम मित्र है । भार्या धर्म, अर्थ और कामका मूल है और संसार-सागरसे तरनेकी इच्छावाले पुरुषके लिये भार्या ही प्रमुख साधन है ।
भार्यावन्तः क्रियावन्तः सभार्या गृहमेधिनः ।
भार्यावन्तः प्रमोदन्ते भार्यावन्तः श्रियान्विताः ॥

जिनके पत्नी है, वे ही यज्ञ आदि कर्म कर सकते हैं । सपत्नीक पुरुष ही सच्चे गृहस्थ हैं। पत्नीवाले पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं तथा जो पत्नीसे युक्त हैं, वे मानो लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं।
सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः ।
पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः ॥

पत्नी ही एकान्तमें प्रिय वचन बोलनेवाली संगिनी/मित्र है । धर्मकार्योंमें पिताकी भाँति पतिकी हितैषिणी होती हैं और संकटके समय माताकी भाँति दुःखमें हाथ बँटाती तथा कष्ट-निवारणको चेष्टा करती हैं ।
कान्तारेष्वपिविश्रामो जनस्याध्वनिकस्यवै।
यः सदारः स विश्वास्यस्तस्माद्दाराः परागतिः॥

परदेशमें यात्रा करनेवाले पुरुषके साथ यदि उसकी स्त्री होतो वह घोरजंगलमें भी विश्राम पा सकता है। लोक-व्यवहारमें भी जिसके स्त्री है उसीपर सब विश्वास करते हैं इसलिये स्त्री ही पुरुषकी श्रेष्ठ गति है
संसरन्तमपि प्रेतं विषमेष्वेकपातिनम् ।
भार्यैवान्वेति भर्तारं सततं या पतिव्रता ॥

पति संसारमें हो या मर गया हो अथवा अकेले ही नरकमें पड़ा हो; पतिव्रता स्त्री ही सदा उसका अनुगमन करती है ।
प्रथमं संस्थिता भार्या पतिं प्रेत्य प्रतीक्षते ।
पूर्वं मृतं च भर्तारं पश्चात् साध्व्यनुगच्छति ॥

साध्वी स्त्री यदि पहले मर गयी हो तो परलोकमें जाकर वह पतिकी प्रतीक्षा करती है और यदि पहले पति मर गया हो तो सती स्त्री पीछेसे उसका अनुसरण करती है।
एतस्मात् कारणाद् राजन् पाणिग्रहणमिष्यते ।
यदाप्नोति पतिर्भार्यामिहलोके परत्र च ॥

राजन् ! इसीलिये सुशीला स्त्रीका पाणिग्रहण करना सबके लिये अभीष्ट होता है; क्योंकि पति अपनी पतिव्रता स्त्रीको इहलोकमें तो पाता ही है, परलोकमें भी प्राप्त करता है ॥
आत्माऽऽत्मनैव जनितः पुत्र इत्युच्यते बुधैः ।
तस्माद् भार्यां नरः पश्येन्मातृवत् पुत्रमातरम् ॥

पत्नीके गर्भसे अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए आत्माको ही विद्वान् पुरुष पुत्र कहते हैं. इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपनी उस धर्मपत्नीको जो पुत्रकी माता बन चुकी है, माताके ही समान देखे ॥
दह्यमाना मनोदुःखैर्व्याधिभिश्चातुरा नराः ।
ह्रादन्ते स्वेषु दारेषु धर्मार्ताः सलिलेष्विव ॥

जैसे धूपसे तपे हुए जीव जलमें स्नान कर लेनेपर शान्तिका अनुभव करते हैं, उसी प्रकार जो मानसिक दु:ख और चिन्ताओंकी आगमें जल रहे हैं तथा जो नाना प्रकारके रोगोंसे पीड़ित हैं,वे मानव अपनी पत्नीके+
समीप होनेपर आनन्दका अनुभव करते हैं

विप्रवासकृशादीना नरा मलिनवाससः।
तेऽपि स्वदारांस्तुष्यन्ति दरिद्रा धनलाभवत्॥

जो परदेशमें रहकर अत्यन्त दुर्बल होगये हैं जो दीन और मलिन वस्त्र धारण करनेवाले हैं वे दरिद्र मनुष्य भी अपनी पत्नीको पाकर ऐसे संतुष्ट होते हैं,मानो उन्हें कोई धन मिला हो
सुसंरब्धोऽपि रामाणां न कुर्यादप्रियं नरः ।
रतिं प्रीतिं च धर्मं च तास्वायत्तमवेक्ष्य हि ॥

रति, प्रीति तथा धर्म पत्नीके ही अधीन हैं, ऐसा सोचकर पुरुषको चाहिये कि वह कुपित होनेपर भी पत्नीके साथ कोई अप्रिय बर्ताव न करे ।
आत्मनोऽर्धमिति श्रीतं सा रक्षति धनं प्रजाः ।
शरीरं लोकयात्रां वै धर्म स्वर्गमृषीन् पितॄन् ॥

पत्नी अपना आधा अंग है, यह श्रुतिका वचन । वह धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्वर्ग, ऋषि तथा पितर - इन सबकी रक्षा करती है ।
आत्मनो जन्मनः क्षेत्रं पुण्यं रामाः सनातनम् ।
ऋषीणामपि का शक्तिः स्रष्टुं रामामृते प्रजाम् ॥

स्त्रियाँ पतिके आत्माके जन्म लेनेका सनातन पुण्य क्षेत्र हैं । ऋषियोंमें भी क्या शक्ति है कि बिना स्त्री के संतान उत्पन्न कर सकें ।

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