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लोकतंत्र: एक पूंजीवाद

आजकल पूंजीवाद का दौर है। यहां हर वस्तु और व्यक्ति का मूल्य होता है। यह मूल्य किसी भी रूप में हो सकता है। अभी कल परसों सौम्या जी ने अपनी कामवाली का जीरो बैलेंस खाता खुलवाया ट्विटर पर पोस्ट किया।
जीरो बैलेंस खाता फ्री में खुलता है मगर आजकल के पूंजीवाद के युग में फ्री का क्या काम। मैडम जी ने तुरंत केक मंगवा कर ट्विटर पे इस नेक काम का ढिंढोरा पीटा और फुटेज कमाई। डेमोक्रेसी राजनीती का पूंजीवाद है।
जैसे पूंजीवादी का एकमात्र उद्देश्य होता है मुनाफा, वैसे ही लोकतंत्र में नेता का एकमात्र उद्देश्य होता है वोट। जैसे पूंजीवाद हर चीज में अपना फायदा ढूंढ लेता है वैसे ही राजनेता भी वोट ढूंढने में माहिर होते हैं। कैसे भी मिले, कहीं से भी मिले, बस वोट मिले।
और वोट के लिए ईमान गिरवी रखने की परंपरा आज की नहीं बल्कि नेहरूजी के ज़माने से चली आ रही है। 1948 ई. में महात्मा गांधी की मृत्यु हुई और 1952 ई. में आम चुनाव हुए।
उड़ीसा का एक कांग्रेस उम्मीदवार अपने चुनाव प्रचार के दौरान गांधी की खूब चर्चा करता और चर्चा करते-करते अंत में भावनात्मक रूप से कहता कि गांधी की आत्मा बैलेट बॉक्स में बैठी हुई है। वह यह देखेगी कि कौन-कौन मतदाता उन्हें आदर देना चाहता है।
मतदाता अपना मतपत्र लेकर बैलेट बॉक्स के सामने झुककर प्रणाम करते थे मानो वे गांधी की आत्मा को प्रणाम कर रहे हैं और अपना मतपत्र कांग्रेस के बैलेट बॉक्स में डालकर फिर से प्रणाम कर बाहर निकल जाते। कांग्रेसी उम्मीदवार भारी मतों से विजयी हुए।
ये वही चुनाव है जिसमें कांग्रेस का जीतना शुरू से ही तय था। नेहरूजी के टक्कर में कोई नहीं था। फिर भी उन्होंने पूरे देश में चुनाव प्रचार किया। उस देश में जहां खाने को रोटी भी नहीं थी। उनकी इस परंपरा को आज भी कायम रखा जा रहा है।
कभी सैनिकों की लाशें दिखा के वोट माँगा जा रहा है, कभी कटती गाय दिखा कर। और कोरोना में भी ये सिलसिला रुका नहीं है। एक तरफ प्रधानजी कह रहे हैं कि कोरोना गया नहीं है इसलिए जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं। दूसरी तरफ बिहार में चुनावों में भीड़ जुटाने के लिए पैसे बांटे जा रहे हैं।
बसें भर भर के नेताओं की रैलियों में भीड़ आ रही है। ऐसे ही नहीं चुनावों को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है। होली, गणगौर, ईद, रथयात्रा, राखी, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, शादी, हनीमून सब कुछ लोगों ने कोरोना के डर से घर में बंद होके मना लिए लेकिन चुनाव तो पूरे जोर शोर से ही होंगे।
होता है तो हो कोरोना। लोकतंत्र से बड़ा थोड़े ही है कोरोना। वैसे भी आज ही सरकार ने बोला है कि जैसे ही कोरोना कि दवाई आएगी चुनावी इलाकों में सबसे पहले और फ्री में दी जायेगी। अब देखते हैं क्या करता है कोरोना। और कोरोना का भी वोट बैंक के लिए भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है।
पहले कोरोना के नाम पे बैंकों में भीड़ लगा के पांच-पांच सौ रूपये बांटे गए। खूब ढोल पीटा। जनता को पता लग गया कि सरकार को लोगों की परवाह है। सच्चाई ये है कि आधे से ज्यादा खातों में वे 500 रूपये आज भी पड़े हुए हैं, हाँ बैंकर जरूर इस चक्कर में शहीद होने शुरू हो गए।
वैसे भी सरकार को बैंकरों कि कोई चिंता नहीं। क्यूंकि लोकतंत्र में चिंता उसकी होती है जो या तो वोट बैंक हो या जिससे वोट बैंक की भावनाएं जुडी हुई हों। अब बैंकों से पब्लिक ऐसे ही खुन्नस खाये बैठी है।
बैंक की छुट्टियों की बात हो या सैलरी बढ़ने की, न्यूज़ वाले ऐसे दिखाते हैं जैसे बैंकों से बड़ा देश का दुश्मन कोई नहीं। तो सरकार को भी डर है कि अगर बैंकरों का भला किया तो कहीं पब्लिक नाराज न हो जाए।
तभी तो कभी किसी सरकारी विज्ञापन, ट्वीट, बधाई सन्देश वगैरह में बैंकों और बैंकरों के लिए कोई जगह नहीं होती। देखा जाए तो गलती बैंकरों की ही है। The Dark Knight वाले जोकर ने कहा है कि "If You are good at something, never do it for free".
और इस पूंजीवाद के ज़माने में भी बैंक वाले सारा काम फ्री में ही कर रहे हैं। बैंक वालों को भी सरकार के नक़्शे कदम पर चलना चाहिए। ब्रांच आने वाली पब्लिक से कोरोना फी लेनी चाहिए, कोरोना के नाम पर बीमा बाँटना चाहिए, ATM से पैसे निकलने के बात ATM सेनेटाइजेशन चार्ज लेना चाहिए।
लेकिन हो क्या रहा है? कोरोना के नाम पर लोन बांटे जा रहे हैं, कोरोना में छुट्टियों के दिन भी बैंक खोले जा रहे हैं, चुनाव के लिए देर रात तक बैंक खोलने का आदेश आ गया है।
समझ में नहीं आता कि जिस बैंक को पूंजीवादी होना चाहिए था वो समाज सेवा कर रहा है और जिस सरकार को समाज सेवा करनी चाहिए थी वो लोकतंत्र रुपी पूंजीवाद में वोट कमाने में लगी हुई है।

लानत है।
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