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सरकारी बैंक: एक युद्धभूमि

अमेरिका और रूस के बीच लम्बा शीतयुद्ध चला है। लेकिन कभी भी ये युद्ध अमरीका या रूस की भूमि पर नहीं लड़ा गया, ना ही दोनों देशों को कोई भारी नुक्सान हुआ, बल्कि फायदा ही हुआ।
पूंजीवादियों ने अपने समर्थक गुटों को हथियार बेचे और साम्यवादियों ने अपने समर्थक दलों को। लड़ाई का शिकार हुए तुर्की, क्यूबा, वियतनाम, कोरिया, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया जैसे छोटे देश। कुछ देश जैसे उत्तर कोरिया, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया पूरी तरह बर्बाद हो गए।
कुछ देशों ने पूँजीवाद की राह पकड़ ली, जैसे दक्षिण कोरिया, तुर्की। और कुछ देश समाजवाद के रस्ते चल पड़े जैसे वियतनाम और क्यूबा। कुल मिलाकर पूंजीवाद कर साम्यवाद रुपी दो पाटों के बीच में छोटे-छोटे देश अनाज की तरह पिस गए। भारत की एक अलग दास्ताँ है।
हमारे यहां साम्यवाद तो खुद अपने ही समर्थकों की मेहरबानी से बदनाम है इसलिए कार्ल मार्क्स के चेलों ने साम्यवादी मार्क्स को छोड़ समाजवादी लेनिन की पूँछ पकड़ना उचित समझा। हमने भगवान् बुद्ध के बताये हुए मध्यम मार्ग को अपनाया,
और अपनी सहिष्णुता का परिचय देते हुए दोनों पक्षों (पूंजीवाद और समाजवाद) के समर्थकों को झेलने की योजना बनायीं। इस प्रकार हमने लोकतंत्र रुपी म्यान में समाजवाद और पूंजीवाद नामक दो तलवारें घुसा लीं। समाजवाद का नाम लेते ही भारतीय नेता और जनता दोनों ही चरम सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
नेता इसलिए क्यूंकि समाजवाद के नाम पे देश के संसाधनों पर आराम से पूर्णाधिकार किया जा सकता है और जनता इसलिए क्यूंकि समाजवाद में नेताओं से खैरात मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है। दूसरी ओर पूंजीपति हैं जिनका मानना है कि देश और देश के संसाधन उनकी ज़ाती मिल्कियत है।
समाजवादी नेता जनता को वोट बैंक समझते हैं और पूंजीपति उसे उपभोग की वस्तु। फलस्वरूप देश के भीतर ही इन दोनों विचारधाराओं के मध्य युद्ध हो रहा है। और युद्ध स्थल है सरकारी बैंक। बैंक का काम ही पूँजी का हस्तांतरण है। अगर कायदे से देखा जाए तो बैंक एक पूर्णतया पूंजीवादी संस्था है।
और सरकार है समाजवादी। तो सरकारी बैंक क्या हुए? पूंजीवाद और समाजवाद की मिलीजुली खिचड़ी। लेकिन जैसे हाजमा खराब होतो खिचड़ी दवा का काम करती है वैसे ही भारत जैसे विभिन्नताओं से भरे हुए, हरतरह के 'वाद' को समेटे हुए, थोड़े करप्ट, थोड़े ईमानदार देश केलिए सरकारी बैंक बिलकुल उपयुक्त हैं।
सरकारी बैंक सबको खुश रख सकता है। एक बड़े पूंजीपति को प्राइवेट बैंकों ने लोन देने से मना कर दिया। उसने अपने प्यारे नेताजी को फ़ोन लगाया। नेताजी ने सरकारी बैंक को फ़ोन लगाया। लोन पास। पूंजीपति खुश। बदले में नेताजी की पार्टी को चंदा मिला। नेताजी भी खुश।
सरकारी बैंक में पैसा सुरक्षित है इसलिए आम जनता भी खुश। फ्री में खाता खुलता है, गरीब भी खुश। सरकार अपनी गरीबी उन्मूलन, वित्तीय समावेशन, रोजगार उत्पादन से लेकर औद्योगिक विकास, कमर्शियल फंडिंग, इंफ़्रा डेवलपमेंट तक की योजनाएं सरकारी बैंकों से चलाती है इसलिए सरकार भी खुश।
अमीर-गरीब, बूढा-जवान, ग्रामीण-शहरी, राजा-भिखारी, सरकारी बैंक सबके लिए खुला है। समाजवाद और पूंजीवाद में गज़ब का सामंजस्य बना कर चल रहे हैं सरकारी बैंक।
लेकिन कुछ लोगों को ये सामंजस्य पसंद नहीं आ रहा। ये वो लोग हैं जो दुनिया को ब्लैक एंड वाइट तरीके से ही देखते हैं।
सफ़ेद और काले के बीच का रंग उन्हें पसंद नहीं आता। उनका मानना है कि सरकारी बैंक समाजवाद के प्रतीक हैं, इसलिए पूंजीवादी अर्थव्यस्था में इनकी कोई जरूरत नहीं। वे अगर चाहें तो समाज सेवा कर सकते हैं लेकिन बिना मुनाफे के, NGO की तरह।
उनका काम केवल गरीब लोगों की सेवा और सरकारी योजनाओं का क्रियान्वन ही होना चाहिए। सरकारी बैंकों को मुनाफा कमाने का कोई हक़ नहीं। चाहे घाटे में रहें, चाहें डूबें, उनकी बला से। और प्राइवेट बैंक केवल इत्र लगाकर इस्त्री करे हुए कपडे पहन के आने वालों को ही सर्विस देंगे।
समाजसेवा उनका काम नहीं। समाजवाद और पूँजीवाद के बीच युद्ध की शुरुआत यहीं से होती है। सरकारी बैंकों पर समाजवादी सरकार की महत्वाकांक्षा का बोझ डाला जा रहा है। इतना ज्यादा कि बाकी के काम के लिए समय ही नहीं है।
जनधन खाते, जीवन ज्योति बीमा, सुरक्षा बीमा, अटल पेंशन, फसल बीमा, PM किसान योजना, KCC, MUDRA, स्वनिधि, आधार updation, वित्तीय साक्षरता, कोरोना लोन सब सरकारी बैंक करेंगे। अब जाहिर है कि इतना सब करने के लिए स्टाफ भी चाहिए। पर वो नहीं मिलेगा क्यूंकि कॉस्ट कटिंग करनी है।
स्टाफ मांगो तो कहते हैं digitization आ गया है। digitization केवल सरकारी बैंकों में ही तो आया है। प्राइवेट बैंक तो अभी भी रजिस्टर भर-भर के चल रहे हैं। मतलब सरकारी बैंक के स्टाफ के पास इतना टाइम और हिम्मत ही न छोडो कि वो कोई प्रॉफिट जनरेटिंग काम कर पाए।
फिर घाटे में बता के बैंक को बेच डालो। कोई पूंजीपति उसे खरीद लेगा। अगर ऐसा हुआ तो पूंजीवाद जीता। नहीं तो प्राइवेट बैंक वाला फ्रॉड करके भाग जाएगा। सरकार को पब्लिक के पैसे की चिंता सताएगी। फिर उसे डूबने से बचाने के लिए किसी सरकारी बैंक को आगे किया जाएगा।
हो सकता है जबरदस्ती किसी सरकारी बैंक को खरीदना भी पड़े। इस तरह समाजवाद जीत जाएगा। जीते कोई भी, हार हमेशा जनता की होगी। 1917 से 1969 हज़ार से ज्यादा प्राइवेट बैंक डूबे। उसके बाद भी प्राइवेट बैंक लगातार डूब रहे हैं। 1994 में जिन 10 निजी बैंकों को लाइसेंस दिया था उनमें से 4 बचे हैं।
2008 में ICICI बैंक के बहार भीड़ तो देखी होगी? ज्यादा पीछे क्यों जाते हैं, हाल ही में YES बैंक डूबने के कगार पे आ गया था, SBI ने 3000 करोड़ देकर बचाया था। बाहर से समाजवाद का कितना ही दिखावा करे लेकिन सरकार प्राइवेट बैंकों को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखाई देती है।
सरकारी बैंकों पर दो तरफ़ा मार पड़ रही है। पूंजीवाद भी मार रहा है और समाजवाद भी। सरकारी बैंक धीरे धीरे जनता का विश्वास खो रहे हैं। और लोगों का निजी बैंकों में विश्वास शायद ही कभी था।
पूंजीपतियों की गोद में बैठ कर सरकार समाजवाद का जो ढोंग कर रही है जनता उससे बहुत समय तक अछूती नहीं रहने वाली। जिस दिन इस नाटक का पर्दाफाश हुआ जनता किसी को नहीं बख्शेगी। डेढ़ सौ करोड़ लोगों का गुस्सा झेलने की ताकत नहीं है किसी में।
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