पूर्वी यूरोप के दो पड़ोसी देश आर्मेनिया और अजरबैजान पिछले दिनों आपस में भिड़ गए, जो भिड़ंत अभी तक चल ही रही है। जबकि विश्व मे हर जगह गर्मा गर्मी का माहौल है, ऐसे में सबका ध्यान इस तरफ जाना लाज़मी है।

आइये देखते हैं क्या है यह विवाद और इसके क्या कारण हैं।

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इस विवाद की एक खास बात यह है कि अभी तक कोई शत प्रतिशत नहीं कह सकता है कि कौन किसके साथ है, पर हम लोग मोटा मोटी मुख्य खिलाड़ी गिनने की कोशिश करते हैं

डायरेक्टली इन्वॉल्व - तुर्की, रूस, पाकिस्तान
पास से देख रहे - इजराइल, ईरान, फ्रांस, ब्रिटेन
दूर से देख रहे - यूएस, चीन, भारत
अब इस विवाद को अच्छे से समझने के लिए लगभग 100 साल पीछे चलना होगा। 18 जून, 1914 को ऑस्ट्रिया-हंगरी के होने वाले राजा को एक सर्बियन ने मार दिया, इस घटना के परिणाम स्वरूप पहला विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ, जो की लगभग 5 साल चला, जिसके फल स्वरूप उस इलाके के नक़्शे में बहुत बदलाव आए
जब युद्ध शुरू हुआ तब एक तरफ अलाइड पावर्स फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, यूएस आदि थे तो दूसरी तरफ सेंट्रल पावर्स जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की), आदि थे।

युद्ध हार जाने के कारण सेंट्रल पावर्स के साम्राज्य का अंत तो हुआ ही परंतु इसी मध्य रूसी साम्राज्य का भी पतन हुआ।
आर्मेनिया चार सदियों से दो भागों में बंटा हुआ था जिसके पूर्वी भाग पर रूस का और पश्चिमी भाग पर ऑटोमोन साम्राज्य का कब्ज़ा था। पूर्वी भाग में तो फिर भी इनके हालात ठीक थे पर पश्चिमी भाग में कहते हैं कि तुर्को ने 19वी सदी की शुरुआत में करीब 15 लाख अर्मेनियाईयो का नरसंहार किया।
खैर, दोनों साम्राज्यों के विगठन का फायदा उठाते हुए आर्मेनिया ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। दो साल बीतते ही नए बने तुर्की की सेना ने आर्मेनिया पर हमला कर दिया, मदद देने के बदले रूस ने आर्मेनिया पर सोवियत संघ में शामिल होने का दबाव बनाया जो कि अंततः उसे मानना ही पड़ा
सोवियत संघ में विलय के बाद रूस ने आर्मेनिया, अजरबैजान तथा जॉर्जिया को मिला कर Transcaucasin Socialist Fedrative Soviet Republic बनाया। इन इलाको के बीच बॉर्डर बनाते समय जोसफ स्टालिन ने "नागोरनो कराबाख" के पहाड़ी इलाके को आर्मेनिया में रखा क्योंकि इस इलाके के निवासी अर्मेनियाई है।
तुरंत ही तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा अतातुर्क ने इसका विरोध किया। तुर्की का डर यह था कि एक मजबूत आर्मेनिया भविष्य में तुर्की में रह गए पश्चिमी आर्मेनिया की भी मांग करेगा। स्टालिन ने तुर्की के दबाव में आकर यह पहाड़ी इलाके 1922 में शिया बहुल अजरबैजान को दे दिए।
छह दशकों तक यह सिलसिला ऐसे ही चला पर चीज़े बदलनी तब शुरू हुई जब अस्सी के दशक में सोवियत संघ कमजोर पड़ना शुरू हुआ। 20 फरवरी, 1988 को इस इलाके में एक जनमत संग्रह हुआ जिसमें भारी बहुमत से आर्मेनिया में शामिल होने का निर्णय हुआ जिसे सोवियत रूस ने स्वीकार नहीं किया।
1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही आर्मेनिया और अजरबैजान स्वतंत्र देश बन गए। 7 दशक से सो रहे भूत फिर से जग गए। तुर्की, ईरान और रूस ने अपनी खींचतान में मामला इतना फसाया की आखिरकार अर्मेनिया और अजरबैजान में युद्ध हो ही गया। 1994 में फ्रांस, रूस और यूएस ने मिलकर मामला सुलझाया।
युद्धविराम के उपरांत स्थिति यह रही की नागोरनो-कराबख अर्मेनिया के कब्जे में हो गया जिसका कंट्रोल अर्मेनिया ने अपने लड़ाकों को दे दिया। अभी तक यह इलाका कानूनी तौर पर अजरबैजान का है, आता भी अजरबैजान के बॉर्डर के अंदर है परंतु जमीनी कब्ज़ा अर्मेनियाई लड़ाकों का है।
अब इस मामले के फिर से हरे होने के पीछे दो कारण हैं, एक प्रत्यक्ष और दूसरा अप्रत्यक्ष।

प्रत्यक्ष कारण यह कि अजरबैजान ने चार गैस और ऑयल पाइपलाइन बनाये हैं जिनमे से कुछ इन इलाकों के काफी करीब (15 km) से गुजरते हैं। ऐसे में सुरक्षा के लिए उसका इस इलाके पर कब्ज़ा होना महत्वपूर्ण है।
अप्रत्यक्ष कारण यह कि तुर्की के राष्ट्रपति एर्डोगन ने अर्मेनिया से अपनी दुश्मनी निकालने के लिए अजरबैजान का मोहरे की तरह इस्तेमाल किया है। एर्डोगन ने 100 साल पहले खत्म हो चुके ऑटोमोन साम्राज्य को फिर से जिंदा करके अपने पूर्ववर्ती इलाको में प्रभाव स्थापित करने का बीड़ा उठाया है
यही कारण है कि उसने पहले हाया सोफिया म्यूसियम को मस्जिद बनाया, फिर इजराइल को ख़त्म करने की बात की और फिर अरब मुल्कों के बारे में कहा कि वो 100 साल पहले नही थे और पता नही आगे होंगे या नही।

खैर आइये देखते हैं कि इस मामले ने कितने जटिल अंतरराष्ट्रीय समीकरण बना दिये हैं।
रूस

चूँकि यह दोनों सोवियत रूस का हिस्सा थे इसलिय रूस के हिसाब से यह इलाके उसके प्रभाव क्षेत्र है।

रूस खुल कर एक पक्ष लेना नहीं चाहता परंतु उसने 1920 की संधि के हिसाब से अर्मेनिया को जरूरी मदद का आश्वाशन दिया है। गौरतलब है कि अर्मेनिया में रूस का मिलिट्री बेस भी है।
ईरान

मजेदार बात यह है कि यह दोनों देश रूस से पहले परशियन साम्राज्य में आते थे। पड़ोसी राज्य होने के कारण दोनों ही मूल के लोग ईरान में रहते हैं इसलिए एक साइड लेना मुश्किल है। एक तरफ शिया बहुल परंतु अमेरिका का दोस्त अजरबैजान तो दूसरी तरफ क्रिस्चियन परंतु दोस्त मुल्क अर्मेनिया।
इजराइल

आश्चर्यजनक तौर इजराइल के ताल्लुक अजरबैजान से बेहतर है तथा इजराइल इन्हें कुछ हथियारों की आपुर्ति भी करता है। फिर भी इजराइल के लिए असमंजस यह है कि वह ऐसे स्थिति में अजरबैजान को समर्थन कैसे दे जब इजराइल को मिटाने की कसमें खाने वाला तुर्की भी वही खड़ा हो?
यूएई - सऊदी

लाज़िम लगता है कि यह दोनों तो मुस्लिम बहुल अजरबैजान को ही समर्थन देंगे पर तुर्की की मौजूदगी समीकरण बदल देती है। हालाँकि सऊदी ने आज तक अर्मेनिया को मान्यता भी नही दी है लेकिन अब यह दोनों मुल्क संबंध बढ़ाने को उत्सुक है क्योंकि इससे इनके फ्राँस से रिश्ते बेहतर होते हैं
फ्रांस

फ्रांस उस OSCE Minsk ग्रुप का हिस्सा है जो अमेरिका और रूस के साथ मिलकर इस विवाद की निगरानी करता है। फिर भी फ्रांस ने अर्मेनिया को सपोर्ट किया है जिसका कारण है तुर्की। हालांकि तुर्की और फ्रांस दोनो NATO के सदस्य है किंतु तुर्की की हरकतें फ्रांस को बिल्कुल नही सुहा रहीं।
पाकिस्तान

नए मालिक तुर्की जिसको सपोर्ट कर रहे, भाड़े के देश पाकिस्तान को भी उसे सपोर्ट करना ही पड़ेगा। अजरबैजान ने पाक की मदद मांगी है और सैन्य सहायता देने का मतलब की अंतराष्ट्रीय महकमे में पाक की थू थू होना तय है। नॉन सीरियस नेशन के तौर पे पाक की पहचान और पुख्ता होगी।
भारत

चूँकि अजरबैजान कश्मीर मुद्दे पे पाक का समर्थन करता है इसलिए हमारे जनमानस का मोरल समर्थन अर्मेनिया के साथ है। 26 सिंतबर, 2019 को तुर्की के खिलाफ माहौल बनाने की लिए पीएम मोदी ने न्यू यॉर्क में अर्मेनिआ के प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी।
अमेरिका

सबसे विषम परिस्थिति अमेरिका के लिए है। अजरबैजान में उसके मिलिट्री बेस हैं तो अर्मेनिया से भी रिश्ते ठीक है। तुर्की तो वैसे कहने के लिए अमेरिका का साथी है और NATO का सदस्य है परंतु उससे दूरियां काफी बढ़ी है और अमेरिका उसको उसकी हैसियत दिखाना भी चाहता है
तुर्की अमेरिका के बाकी साथियों, यानी कि इजराइल, अरब आदि के लिए मुसीबत बना हुआ है, ऐसे में कही न कही अमेरिका की इच्छा है कि तुर्की यहाँ पे भी उस तरह से फंस जाए जैसे तुर्की सिरिया में फंसा हुआ है। पर अमेरिका के लिए फिर रूस का एडवांटेज भी स्वीकार्य नही है।
ऐसे में अमेरिका ने अपने पत्ते छुपा रखे हैं और शायद राष्ट्रपति चुनाव के बाद ही चले। खास तौर पर तब जब चीन भी अपने इरादे कुछ साफ करे। यदि यह साफ होता है कि तुर्की ने यह सारी प्रॉक्सी वॉर चीन के शह पर शुरू की है तब मेरा आकलन यह है कि शायद अमेरिका को रूस के एडवांटेज से दिक्कत ना हो।
अंत मे यही कहते हुए समाप्त करूँगा की तुर्की और पाकिस्तान के अलावा बाकी सारे देशों की कोशिश यहाँ पर यही है कि किसी भी तरह यह युद्ध रुक जाए ताकि वह इस फँसे हुए मामले से दूर रह सके।

वैसे भी यूरोप पिछली सदी में दुनिया को दो विश्व युद्ध दे चुका है।

Iti. इति
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