यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।

(जब जब धर्म हानि,अधर्म वृध्दि होती है,सज्जनों की रक्षा,दुष्टों के विनाश,धर्मस्थापना के लिए मैं युग युग में जन्म लेता हूं)
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों पर नहीं। इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वेकारणकारणम् ॥

भगवान् तो कृष्ण हैं, जो सच्चिदानन्द स्वरुप हैं। उनका कोई आदि नहीं है, क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु के आदि हैं।
भगवान गोविंद समस्त कारणों के कारण हैं।
मन्दं हसन्तं प्रभया लसन्तं जनस्य चित्तं सततं हरन्तम् ।
वेणुं नितान्तं मधु वादयन्तं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि

मृदु हास्य करनेवाले; तेज से चमकनेवाले, हमेशा लोगों का चित्त आकर्षित करनेवाले;
अत्यंत मधुर बासुरी बजानेवाले बालकृष्ण का मै मन से स्मरण करती हूँ।
वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

मैं वसुदेव पुत्र, देवकी के परमानन्द, कंस और चाणूर जैसे दैत्यों का वध करने वाले,
समस्त संसार के गुरू भगवान कृष्ण को वन्दन करती हूँ।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकी नन्दनाय च ।
नन्दगोप कुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ॥

हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।
हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे।।
वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वरः। जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥

श्रीराधारानी वृन्दावन की स्वामिनी हैं और भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन के स्वामी हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो।
जहां कृष्ण राधा तहां जहं राधा तहं कृष्ण।
न्यारे निमिष न होत कहु समुझि करहु यह प्रश्न।।

श्री कृष्ण स्वयं कहते है- जिस समय मैं किसी के मुख से ‘रा’ सुनता हूं, उसे मैं भक्ति प्रेम प्रदान करता हूं और धा शब्द के उच्चारण करने पर तो मैं राधा नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे चल देता हूं।
कृष्णप्रेममयी राधा
राधाप्रेममयो हरिः ।
जीवनेन धने नित्यं
राधाकृष्णगतिर्मम ॥ 

श्रीराधारानी श्रीकृष्ण प्रेम से ओत प्रोत हैं और श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के प्रेम से । जीवन के नित्य धन स्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥
कृष्णस्य द्रविणं राधा
राधायाः द्रविणं हरिः ।  
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ 

श्रीकृष्ण का धन श्रीराधारानी जी हैं और श्रीराधारानी जी  का धन श्रीकृष्ण । जीवन के नित्य धन स्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥❤
कृष्णप्राणमयी राधा
राधाप्राणमयो हरिः ।
जीवनेन धने नित्यं
राधाकृष्णगतिर्मम ॥ 

श्रीकृष्ण के प्राण श्रीराधारानी जी में बसते हैं और श्रीराधारानी जी के प्राण श्रीकृष्ण में। जीवन के नित्य धन स्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥❤
नीलाम्बरा धरा राधा
पीताम्बरो धरो हरिः ।  
जीवनेन धने नित्यं
राधाकृष्णगतिर्मम ॥ 

श्रीराधारानी जी नीले वस्त्र धारण करती हैं और श्रीकृष्ण पीले ।
जीवन के नित्य धन स्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥❤
कृष्णद्रवामयी राधा
राधा द्रवामयो हरिः ।
जीवनेन धने नित्यं
राधाकृष्णगतिर्मम ॥ 

श्रीकृष्ण के नाम से श्रीराधारानी जी प्रसन्न होती हैं और श्रीराधारानी जी के नाम से श्रीकृष्ण । जीवन के नित्य धन स्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥❤
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।

कृष्ण कहते हैं
हे गुडाकेश (निद्राजित्) ! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।

मैं बारह आदित्यों में विष्णु और ज्योतियों में अंशुमान् सूर्य हूँ मैं उनचास मरुतों (वायु देवताओं) में मरीचि हूँ और नक्षत्रों में शशी (चन्द्रमा) हूँ।।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।

मैं वेदोंमें सामवेद हूँ | देवताओंमें इन्द्र हूँ | इन्द्रियोंमें मन हूँ और प्राणियोंकी चेतना हूँ ||
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।

रुद्रों में शंकर और यक्षराक्षसों में कुबेर मैं हूँ | वसुओं में पावक (अग्नि) और शिखरवाले पर्वतों में मेरु मैं हूँ।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।

हे पार्थ पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।

महर्षियों में भृगु और वाणियों(शब्दों) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।

मैं समस्त वृक्षो में पीपल का वृक्ष, देवऋषियो में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ |।।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।

घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को मैं मानो। श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मानो।❤
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।

आयुधों में वज्र और धेनुओं में कामधेनु मैं हूँ। सन्तान उत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पों में वासुकि मैं हूँ।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृ़णामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ||

मैं नागों में अनन्त (शेषनाग) हूँ और जल देवताओं में वरुण हूँ मैं पितरों में अर्यमा हँ और नियमन करने वालों में यम हूँ।।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।

दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करनेवालों में काल मैं हूँ। पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड मैं हूँ।
पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् |
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ||

Amongst purifiers I am the wind, and amongst wielders of weapons I am Lord Ram. Of water creatures I am the crocodile, and of flowing rivers I am the Ganges.
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन |
अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम् ||

O Arjun, know me to be the beginning, middle, and end of all creation. Amongst sciences I am the science of spirituality, and in debates I am the logical conclusion.
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्व: सामासिकस्य च |
अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख: ||

I am the beginning “A” amongst all letters; I am the dual word in grammatical compounds. I am the endless Time, and amongst creators I am Brahma.
मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् |
कीर्ति:श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा ||

I am the all-devouring Death, I am the origin of those things that are yet to be. Amongst feminine qualities I am fame, prosperity,speech,memory, intelligence,courage and forgiveness
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर: ||

Amongst the hymns in Sāmveda know me to be Brihatsama; amongst poetic meters I'm Gayatri. Of the 12 months of the Hindu calendar I am Margsheersh, and of seasons I am spring which brings flowers.
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् |
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् || 

I am the gambling of the cheats and the splendor of the splendid. I am the victory of the victorious, the resolve of the resolute, and the virtue of the virtuous.
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय: |
मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना कवि: ||

Amongst the descendants of Vrishni, I am Krishna, and amongst the Pandavas I am Arjun. Know me to be Ved Vyas amongst the sages, and Shukracharya amongst the great thinkers.
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् |
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ||

I am just punishment amongst means of preventing lawlessness, and proper conduct amongst those who seek victory. Amongst secrets I am silence, and in the wise I am their wisdom.
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन |
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ||

I am the generating seed of all living beings, O Arjun. No creature moving or non-moving can exist without me.
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप |
एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ||

There is no end to my divine manifestations, O conqueror of enemies. What I have declared to you is a mere sample of my infinite glories.
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा |
तत्देवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ||

Whatever you see as beautiful, glorious, or powerful, know it to spring from but a spark of my splendor.
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन |
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ||

What need is there for all this detailed knowledge, O Arjun? Simply know that by one fraction of my being, I pervade and support this entire creation.
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो |
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् || 

Arjun says :

O Lord of all mystic powers, if you think I am strong enough to behold it, then kindly reveal that imperishable cosmic form to me.
श्रीभगवानुवाच |
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश: |
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च || 

The Supreme Lord said: Behold, O Parth, my hundreds and thousands of wonderful forms of various shapes, sizes, and colors.
पश्यादित्यान्वसून् रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा |
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ||

Behold in me, O scion of the Bharatas, the (12) sons of Aditi, the (8) Vasus, the (11) Rudras, the twin Ashwini Kumars, as well as the (49) Maruts and many more marvels never revealed before.
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् |
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि || 7||

Behold now, Arjun, the entire universe, with everything moving and non-moving, assembled together in my universal form. Whatever you wish to see, observe it all within this universal form.
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम् ||

But you cannot see my cosmic form with these physical eyes of yours. Therefore, I grant you divine vision. Behold my majestic opulence!
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् |
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ||

In that cosmic form, Arjun saw unlimited faces and eyes, decorated with many celestial ornaments and wielding many kinds of divine weapons.
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् |
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ||

He wore many garlands on his body and was anointed with many sweet-smelling heavenly fragrances. He revealed himself as the wonderful and infinite Lord whose face is everywhere.
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।

Wearing divine garlands (necklaces) and apparel, anointed with divine unguents, the all-wonderful, resplendent (Being) endless with faces on all sides.
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता |
यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन: ||

If a thousand suns were to blaze forth together in the sky, they would not match the splendor of that great form.
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा |
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ||

There Arjun could see the totality of the entire universe established in one place, in that body of the God of gods.
तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जय: |
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ||

Then, Arjun, full of wonder and with hair standing on end, bowed his head with folded hands before the Lord and addressed him thus.
अर्जुन उवाच |
पश्यामि देवांस्तव देव देहे
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् |
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-
मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् || 
Arjun said: O Krishna, I behold within your body all the gods and different beings. I see Brahma; Shiv, all the sages, and the celestial serpents.
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् |
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ||
 I see your infinite form with countless arms,faces and eyes. O Krishna, your form is the universe itself, I don't see in you any beginning, middle, or end
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् |
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्
दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ||
I see you adorned with a crown, and armed with the club and disc, shining everywhere. It is hard to look upon you in the blazing fire of your effulgence.
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे || 
You are the supreme being, the ultimate truth to be known by the scriptures. You are the support of all creation; you are the eternal protector of sanātan dharma
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