हिन्दू समाज के प्रति ऐसी उक्ति सही है कि हिन्दू समाज बाहर से अनावश्यक तत्वों को अपनाता गया (और आवश्यक सनातन तत्वों को त्यागता गया जिस कारण हिन्दुओं का पतन हुआ) ।

परन्तु जो तत्व सनातन से बाहर है वह अशुभ , असत और क्षणिक है , क्योंकि सनातन तत्व है ब्रह्म (और आत्मा), जिसका मार्ग
सनातन धर्म है । नास्तिक ही ऐसा सोच सकते हैं कि सनातन को अ-सनातन से कुछ भी सीखने की आवश्यकता है ; मनुष्य सीखते हैं किन्तु ब्रह्म को को मानवों से सीखने की आवश्यकता नहीं । आज का हिन्दू "धर्म" विशुद्ध सनातन धर्म नहीं है, अनेक बेमेल तत्वोक की खिचड़ी है । आज के अधिकाँश हिन्दुओं को
सनातन धर्म के मौलिक ग्रन्थों के नाम भी मालूम नहीं है ।

गौतम बुद्ध ने राज्याश्रय नहीं ढूँढा , और न ही सनातनियों से उनका कभी कोई टकराव हुआ । गौतम बुध और सम्राट अशोक के मूल उद्गारों में कहीं भी सनातनियों और सच्चे ब्राह्मणों के विरुद्ध कुछ भी नहीं मिलेगा , किन्तु पाश्चात्य
'विद्वानों' और उनके भूरे चेलों ने अनर्गल प्रचार कर रखा है । गौतम बुद्ध ने स्वयं कहा था कि उनका मत पाँच सौ वर्षों तक रहेगा, उसके बाद बौद्धमत के नाम पर जो रहा वह बुद्ध के मत में आसुरी मतों को जोड़कर बनी खिचड़ी थी ।

गौतम बुद्ध के मूल उदगार विनयपिटक जैसे ग्रन्थों में अवशिष्ट हैं ।
उन्होंने कपटी-लोभी ब्राह्मणों की आलोचना और सच्चे ब्राह्मणों की प्रशंसा की (उदाहरणार्थ देखें : "धम्मपाद") , किन्तु ऐसा तो पुराणों में भी है । अशोक के शिलालेखों में तो कपटी-लोभी ब्राह्मणों की आलोचना भी नहीं मिलेगी, केवल ब्राह्मणों और श्रमणों के लिए विशेष छूटों का उल्लेख है ।
पाश्चात्य विद्वानों ने जानबूझकर "श्रमण" अर्थ "बौद्ध" लगाया, यद्यपि श्रमण है "वे तपस्वी जो सत्य की प्राप्ति हेतु तपस्या अर्थात श्रम कर रहे हैं" ; और ब्राह्मण का अर्थ है जिन्हें ब्रह्म (सत्य) प्राप्त हो चुका है (अर्थात जो परमहंस हैं)।

सनातन धर्म :--

फ़्रांसीसी दार्शनिक डेरिडा ने
सत्य ही कहा था कि संसार की हर समस्या "भाषाई" समस्या है , अतः समाधान भी "भाषाई" ही होना चाहिए (Deconstruction) । लोग शब्दों के मनगढ़न्त अर्थ कल्पित कर लेते हैं और फिर उन आधारों पर नए नए "सिद्धान्त" खोज लेते हैं जो न तो सिद्ध हैं और न ही किसी अन्त तक पँहुचाते हैं ।

सत्य हर वस्तु
और घटना का आधार है, असत्य का भी आधार सत्य ही होता है (सत्य की विकृति या अस्वीकृति) । जिस प्रकार अन्धेरा किसी वस्तु के अस्तित्व का नाम नहीं, बल्कि किसी विशेष वस्तु (प्रकाश) के अभाव का नाम है उसी प्रकार असत्य भी किसी वस्तु के अस्तित्व का नाम नहीं, अनस्तित्व है ।

जहाँ कहीं भी जो
कुछ भी वास्तव में "सत्ता" में है वह सत्य है और जो वास्तव में अस्तित्व नहीं रखता परन्तु अस्तित्व का भ्रम देता है वह माया या असत्य है । आर्यावर्त के मुख्य वेद (माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेद) का अन्तिम मन्त्र है :--

"हिरण्यमय पात्र (इन्द्रियों द्वारा दिखने वाला स्वर्णिम और आकर्षक
पञ्चभौतिक प्र-पञ्च रुपी इन्द्रजाल) द्वारा सत्य का मुख ढँका हुआ है ; (जिसे त्यागने पर सत्य प्रकट होता है, जो है :- ) जो पुरुष आदित्य में है वही पुरुष मैं हूँ ; आकाश ब्रह्म है"।

मुख्य वेद का यह अन्तिम मन्त्र ही वेदान्त का आधार है । अतः सत्य है वह सनातन आत्मतत्व जो इन्द्रियों
द्वारा गोचर सृष्टि रुपी हिरण्यमय-पात्र के चित्त पटल से हट जाने पर ही दिख सकता है । सृष्टिचक्र सत्य नहीं, सत्य की प्राप्ति में बाधक है ।

असत्य और अशुभ विचार सृष्टि में सदैव विद्यमान रहते हैं, किन्तु सृष्टि सत्य नहीं, केवल लीला है जिसे जीवों के कल्याणार्थ रचा जाता है । लीला का
अर्थ है लय (ली) तथा सर्जना (ला)। सृष्टि लय होने पर भी जीवों का लय नहीं होता , उन्हें ही भोग और मोक्ष का अवसर देने पुनः सृष्टि रची जाती है ।

शासन और अनुशासन का शाश्वत विधान है शास्त्र । शास्त्र सृष्टि का सनातन संविधान है जिसमे संशोधन करने अधिकार मनुष्य को नहीं है । शास्त्र
मनुष्य नहीं लिखता, स्थिर प्रज्ञा वाले ऋषियों के शुद्ध मन में शास्त्र स्वतः प्रकट होता है । शास्त्र को पौरुषेय कहने वाले लोग प्राचीन परिभाषा के अनुसार "नास्तिक" हैं (ईश्वर के होने या न होने पर आस्तिक और नास्तिक को परिभाषित करना ईसाई सम्प्रदाय में है, जो असहिष्णुता और
सम्प्रदायवाद है ; वैदिक धर्म तो आत्मकल्याण में सहायक सभी सच्चे सम्प्रदायों और देवताओं को एक ही सत्य के विप्रों द्वारा दिए गए विभिन्न नाम घोषित करता है)।

अतः संसार की हर समस्या "भाषाई" समस्या है ; भाषा का सही प्रयोग करने पर सारे समाधान भाषित (प्रकाशित) हो जाते हैं ।

किन्तु यदि
चित्त पर क्लिष्ट पापों का कलुष चढ़ा हो तो बिना कठोर प्राणायामादि के केवल प्रवचन मात्र द्वारा सत्य भीतर नहीं घुसता । अतएव शास्त्र-विरोधियों के लिए साम नहीं, बल्कि दाम-दण्ड-भेद की आवश्यकता है । शास्त्रार्थ का अर्थ है "शास्त्र का अर्थ" , न कि किसी न किसी प्रकार स्वयं को सही ठहराना ।
शास्त्र का जिसे ज्ञान नहीं और शास्त्र में जिसकी आस्था ही नहीं उससे शास्त्रार्थ करना समय की बर्बादी है ।

आत्मा, परलोक, कर्मों के फल, आदि इन्द्रियों और यन्त्रों द्वारा नहीं दिखते , स्वविवेक द्वारा इन विषयों में मनमाने निर्णय लेना आत्मघातक है ; आदि शंकर के अनुसार शास्त्र का मुख्य
प्रयोजन है ऐसी ही "सनातन" बातों को समझना और तदनुसार "धर्म" के सही मार्ग पर चलना ।

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