सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था : राजतंत्र

सृष्टि के प्रादुर्भाव से लेकर आज तक की सर्वाधिक सफल शासन व्यवस्था राजतंत्र है‌। अधिनायकतंत्र का समाहार राजतंत्र में ही होता है। कुलीनतंत्र अथवा गणतंत्र का समाहार भी राजतंत्र में होता है
और अन्य लोकलुभावन तंत्र भी अंततः राजतंत्र के ही अंग बन जाते हैं क्योंकि इसमें अनेक गुण और स्वल्प दोष हैं। साथ ही दोषों के अपमार्जन की विधि भी उपलब्ध है। वर्त्तमान में रूस-चीन-कोरिया-क्यूबा आदि शक्तिशाली देश राजतंत्र बनने की ओर ही अग्रसर हैं।
लगभग संपूर्ण पश्चिम एशिया में छद्म राजतंत्र ही है‌ । यहाँ तक कि भारत को गणतंत्र की बेड़ियों में जकड़ने वाले इंग्लैंड में भी राजतंत्र है। संसार में जहाँ-जहाँ तानाशाही है , वह दो पीढ़ी बाद राजतंत्र में बदल जाएगी।
राजतंत्र के ही बल पर कोरिया जैसा अदना सा देश अमरीका को धमका देता है और अमेरिका घूँ-घूँ करता नज़र आता है। राजतंत्र के कारण ही भूटान जैसा छोटा-सा देश भारत और चीन जैसे महादेशों के मध्य अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने में सफल हो जाता है।
राजतंत्र में केवल एक राजा को चुनना होता है और उसका चयन भी सुविज्ञ राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्रविद् और भूतपूर्व राजा करता है न कि मूली न खरीद सकने की तमीज रखने वाला या शराब की एक बोतल पीकर धुत्त शराबी ।
यह बड़ी भ्रांति है कि राजा अपने योग्यायोग्य पुत्र को राजा बना देता है। महाराज दशरथ जब राम के राज्याभिषेक के लिए सभा में आते हैं तो यही कहते हैं कि अब आप लोग मुझे राज्यकार्य से निवृत्त होने की अनुमति दें और किसी योग्य को सिंहासन पर बिठाएँ ।
तब पुरप्रमुख एवं सभासद् स्वयं ही राम का गुणानुवाद करते हुए उन्हें राजपद देने की अनुशंसा करते हैं। जो राजा योग्यता के मूलभूत सिद्धांत का अतिक्रमण करते थे, वे सपरिवार अपने राज्य को नष्ट कर डालते है।
राजतंत्र का इससे भी बड़ा गुण था राजपद का प्रशिक्षण। गर्भाधान से पूर्व ही राजकुमारों को संस्कारित किया जाता था। फिर पच्चीस वर्षों के कठोर प्रशिक्षण के बाद युवराज के रूप शासनसूत्र सँभालने की व्यावहारिक परीक्षा देनी होती थी ।
तब जाकर सभासदों, जनमानस एवं राजनीतिविदों की अनुशंसा पर उन्हें राजपदवी प्राप्त होती थी।

केवल एक जिले को सँभालनेवाले आई ए एस को कठिन परीक्षा और दो वर्षों के प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है फिर पूरे देश को सँभालने के लिए तीस वर्षों का प्रशिक्षण बहुत अधिक तो नहीं है।
यह राजतंत्र अनेक प्रकार का होता है-
१) शुद्ध धर्माधारित राजतंत्र
२) उच्छृंखल राजतंत्र
३) निरंकुश राजतंत्र
४) लोकतंत्रात्मक राजतंत्र
५) मिश्रित राजतंत्र
६) सैनिक राजतंत्र
७) स्तरित राजतंत्र
इस राजतंत्रात्मक व्यवस्था में गणतंत्र की अपेक्षा अनेक गुण हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख किया जा रहा है-

१) एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री का कथन है कि यदि किसी को पाँच वर्ष के लिए नंदनवन का ठेका दे दिया जाए तो वह नंदनवन को रेगिस्तान बना देता
और किसी के नाम रेगिस्तान का आजीवन पट्टा लिख दिया जाए तो वह रेगिस्तान को नंदनवन बना देगा। यही नियम राजतंत्र और गणतंत्र पर भी लागू होता है
२) महाराज मनु का कथन है कि दुर्लभो हि शुचिर्नर:। पवित्र व्यक्ति मिलना दुर्लभ है । इसलिए यदि कहीं मिल जाए तो उसे हाथ से जाने न देना चाहिए और उसी बीज से अन्य पौधे उगाने चाहिए।
३) जितनी ऊर्जा, शक्ति और धन का व्यय गणतंत्रों में नेतृत्व के चयन में होता है उतना यदि राज्यकार्य में लग जाए तो पचास वर्ष में ही राज्य की दशा में आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है।
४) शासक की निरंकुशता को धर्मनीति के प्रशिक्षण से नियंत्रित किया जा सकता है।

५) राजा में अपने कुल , सत्ता प्राप्ति के दुष्ट प्रयत्नों और अयोग्यता से जनित कुंठा का अभाव होता है।

६) राज्य के प्रति अनुत्तरदायी समुदायों, गणों एवं संघों के हस्तक्षेप की संभावना समाप्त हो जाती है।
७) राजा की धर्मपरायणता के कारण प्रजा में भी धर्मपरायणता का विकास होता है और यह अधिक सरल होता है क्योंकि हम एक आदर्श का निर्माण अधिक सहजता से कर सकते हैं, शेष व्यवस्था उसी का अनुसरण और अनुकरण करने को प्रवृत्त होती है।
गुण और भी हैं पर यहाँ कुछ संक्षेप में लिखे गये हैं । बाकी स्थालीपुलाकन्याय से समझ लीजिए। कुछ दोष भी हैं जिनका परिमार्जन संभव है परन्तु गणतंत्र में तो दोषों का अंबार है जिनका परिमार्जन संभव ही नहीं है।
स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचंद्र ने भी इसीलिए द्वारका की गणतंत्र पद्धति के स्थान पर हस्तिनापुर में राजतंत्र पद्धति की पुनः प्रतिष्ठा करवाई और गणतंत्र का अपनी आँखों के सामने विनाश देखा
अतः प्रत्येक राष्ट्र निर्माता और राष्ट्र के किंचिदपि कल्याण के इच्छुक प्राणी को भी वैसा ही प्रयत्न करना चाहिए।
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