श्रावण, शिवजी का प्रिय मास :

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥

भोलेनाथ ने स्वयं कहा है :

द्वादशस्वपि मासेषु श्रावणो मेऽतिवल्लभ: ।
श्रवणार्हं यन्माहात्म्यं तेनासौ श्रवणो मत: ।।

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श्रवणर्क्षं पौर्णमास्यां ततोऽपि श्रावण: स्मृत:।
यस्य श्रवणमात्रेण सिद्धिद: श्रावणोऽप्यत: ।।

अर्थात् मासों में श्रावण मुझे अत्यंत प्रिय है। इसका माहात्म्य सुनने योग्य है अतः इसे श्रावण कहा जाता है। इस मास में श्रवण नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होती है इस

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कारण भी इसे श्रावण कहा जाता है। इसके माहात्म्य के श्रवण मात्र से यह सिद्धि प्रदान करने वाला है, इसलिए भी यह श्रावण संज्ञा वाला है।

हिन्दू धर्म में श्रावण मास का बहुत महत्व है। संपूर्ण माह व्रत और महत्वपूर्ण परिवर्तनों का माह माना गया है।

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इस मास से ही चतुर्मास का प्रारंभ होता है जो व्रत, पूजा, ध्यान और साधना का काल माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से किए जाने वाले सभी कार्य इस माह में सफल हो जाते हैं।

आइए जानते हैं इस माह की विशेषता। :

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1. पहला कारण : इस माह में पतझड़ से मुरझाई हुई प्रकृति पुनर्जन्म लेती है। लाखों-करोड़ों वनस्पतियों, कीट-पतंगे आदि का जन्म होता है। अन्न और जल में भी जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है जिनमें से कई तो रोग पैदा करने वाले होते हैं। ऐसे में उबला और छना हुआ जल ग्रहण करना चाहिए।

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साथ ही व्रत रखकर कुछ अच्छा ग्रहण करना चाहिए।

2. दूसरा कारण : श्रावण माह से वर्षा ऋतु का प्रारंभ होता है। प्रकृति में जीवेषणा बढ़ती है। मनुष्य के शरीर में भी परिवर्तन होता है। चारों ओर हरियाली छा जाती है। ऐसे में यदि किसी पौधे को पोषक तत्व मिलेंगे तो

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वह अच्छे से पनप पाएगा और यदि उसके उपर किसी जीवाणु का कब्जा हो गया तो जीवाणु उसे खा जाएंगे। इसी तरह मनुष्य यदि इस मौसम में खुद के शरीर का ध्यान रखते हुए उसे जरूरी रस, पौष्टिक तत्व आदि दे तो उसका शरीर नया जीवन और यौवन प्राप्त करता है।

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3. तीसरा कारण : साल का सबसे पवित्र महीना सावन को माना जाता है। ऐसा माना जाता है की इस महीने का प्रत्येक दिन भक्ति भाव के लिए होता है जिस भी भगवान् को आप मानते हैं आप उनकी पूरे मन से आराधना कर सकते हैं। लेकिन सावन के महीने में विशेषकर भगवान् शिव

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मां पार्वती और श्री कृष्णजी की पूजा का महत्व होता है।

4. चौथा कारण : हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को खासकर देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत् कुमारों ने महादेव से

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उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।

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अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से पर्वतराज हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था में सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह माह विशेष हो गया।

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5. पांचवां कारण : इस माह में श्रावणी उपाकर्म का बहुत महत्व है। श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष:- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। पूरे माह किसी नदी के किनारे किसी गुरु के सानिध्य में रहकर श्रावणी उपाकर्म करना चाहिए।

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प्रायश्चित : प्रायश्चित रूप में नदी किनारे गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित करना चाहिए।

संस्कार : प्रायश्चित करने के बाद यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कर आत्म संयम का संस्कार करना चाहिए है।

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इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है और द्विज कहलाता है।

स्वाध्याय : इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां

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दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। श्रावण माह में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म प्रत्येक हिन्दू के लिए जरूर बताया गया है। इसमें दसविधि स्नान करने से आत्मशुद्धि होती है व पितरों के तर्पण से उन्हें भी तृप्ति होती है।

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श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है।

सावन का ज्योतिषिय महत्व यह है कि श्रावण मास के प्रारंभ में सूर्य राशि परिवर्तन करते हैं। सूर्य का गोचर सभी 12 राशियों को प्रभावित करता है।

एक और कथा है -

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पौराणिक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि जब देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन हो रहा था तब उस मंथन से 14 रत्न निकले। उन चौदह रत्नों में से एक हलाहल विष भी था, जिससे सृष्टि के नष्ट होने का भय था। तब सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान शिव ने उस विष को पी लिया और

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उसे अपने गले से नीचे नहीं उतरने दिया। विष के प्रभाव से महादेव का कंठ नीला पड़ गया और इसी कारण उनका नाम नीलकंठ पड़ा। इसी क्रम में कहते हैं कि रावण शिव का सच्चा भक्त था।

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वह कांवर में गंगाजल लेकर आया और उसी जल से उसने शिवलिंग का अभिषेक किया और तब जाकर भगवान शिव को इस विष से मुक्ति मिली।

Via SM
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