मित्रों..ग़ज़ब डिबेट चल रही है।फ़िल्मों में सिर्फ़ ऐक्टर्ज़ नहीं होते।एक फ़िल्म के सेट ओर कम से कम डेढ़ सौ लोग काम करते हैं।अंदर वाले या बाहर वाले जिस दिन सेट पे काम करने वाले असिस्टंट्स और workers, Spotboy और बाक़ी सब इंसानों को इज़्ज़त देना सीख जाएँगे तब उनसे बात की जा सकती है
चाहे वो बात nepotism के बारे में हो या फ़ेव्रटिज़म के बारे में हो ।पहले इन सेट ओर काम करने वालों से एक बार पूछ लो की कौन सा ऐक्टर या डिरेक्टर या जो भी हो , वो सबसे ज़्यादा बदतमीज़ है या किस ऐक्टर के नाम से वो उस फ़िल्म में काम करने से मना कर देते हैं
फिर जा कर उन ऐक्टर के सेट्स पे , जहां जब कमान, तथाकथित ऐक्टर के हाथ में आ जाती है . उस फ़िल्म के सपोर्टिंग ऐक्टर्ज़ के पुराने इंटर्व्यू पढ़ लो की वो क्यों फ़िल्म छोड़ के गए थे। तुम जैसा दूसरों के साथ रहोगे वैसा ही वापस भी मिलेगा।
एक फ़िल्म बनाने में खून और पसीना सौ से ऊपर लोगों का होता है , लेकिन न्याय , अन्याय की बात सिर्फ़ वही क्यों करता है जिसको फ़िल्मों से सबसे ज़्यादा मिलता है ।
सच समझना है तो समाज के हर गड्ढों में झांकना पड़ेगा की कितना गहरा है और उसमें कितना काला है ।
फ़िल्मी दुनिया सिर्फ़ दिखती और छपती ज़्यादा है लेकिन यह किसी और दुनिया से अलग नहीं है। मेरे साथ भी २७ सालों में बहुत लोगों में बहुत कुछ किया है, outsiders और insiders दोनों ने , लेकिन मुझे कोई ज़रूरत ही कभी नहीं रही उनके validation या उनकी सराहना की।
आपको और आपके काम को जब दुनिया सराहती है तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कोई दो या तीन लोग नहीं सराहें । क्यों किसीको इतनी ताक़त देनी कि उनकी हाँ या ना या एक थपथपी से ही हमारा वजूद बने। एक आदमी की तारीफ़ काफ़ी है आपको काम करते रहने के लिए ।
चलो बस आज मुझे भी “मन की बात “ करने का मन हुआ साथियों , तो मैंने कर दी। बाक़ी नयी नयी गालियों के साथ रिप्लाई करें तो अच्छा होगा ।अगली फ़िल्म लिख रहा हूँ - “Gangs ओफ़ Parlia......” . dialogues को लेके काफ़ी अटका हुआ हूँ । धन्यवाद
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