आज नाद अनुसंधान की बात करें
साधारण मनुष्य श्वास प्रश्वास में बंधा ईड़ा और पिंगला मार्ग पर चलता रहता है। उसका सुषुम्ना पथ प्रायः बन्द ही रहता है।उसकी इन्द्रियां और चित्त इसीलिए बहिर्मुख हैं।अपने चित्त और प्राणों के बहिर्विकिरण की वजह से वो अपने अंतस्तल के अखंड नाद को सुन नहीं पाता
साधारण मनुष्य श्वास प्रश्वास में बंधा ईड़ा और पिंगला मार्ग पर चलता रहता है। उसका सुषुम्ना पथ प्रायः बन्द ही रहता है।उसकी इन्द्रियां और चित्त इसीलिए बहिर्मुख हैं।अपने चित्त और प्राणों के बहिर्विकिरण की वजह से वो अपने अंतस्तल के अखंड नाद को सुन नहीं पाता
परन्तु जब गुरुकृपा और क्रिया विशेष के द्वारा सुषुम्ना मार्ग उन्मुक्त होता है,उस समय प्राण स्थिर हो कर उसमें प्रवेश करते हैं।उस शून्य पथ का अनुसंधान करने से साधक अनाहत ध्वनि को सुन पाता है।निरंतर इस ध्वनि श्रवण से मन निर्मल और शांत हो जाता है।
नाद के सात स्तरों का योगियों ने उल्लेख किया है।जिसे ओंकार या प्रणवतत्व कहते हैं,वही शब्द तत्व है।कुछ साधक संप्रदायों ने इसे स्फोट भी कहा है।यह स्फोट ही अखंड सत्तारूप शब्द तत्व का वाचक है।अर्थात इसी से ब्रह्मभाव की स्फूर्ति होती है।
प्रणव ईश्वर का वाचक है। वाचक प्रणव, शब्द ब्रह्म के रूप में और वाच्य सत्ता परब्रह्म के रूप में वर्णित है।
अर्थात ब्रह्म ही ब्रह्म का प्रकाशक है। स्वप्रकाशित ब्रह्म अपने स्वरूप के अतिरिक्त और किसी पदार्थ से प्रकाशित नहीं हो सकता।
यही है ॐ के जप का महत्व
अर्थात ब्रह्म ही ब्रह्म का प्रकाशक है। स्वप्रकाशित ब्रह्म अपने स्वरूप के अतिरिक्त और किसी पदार्थ से प्रकाशित नहीं हो सकता।
यही है ॐ के जप का महत्व
इसके बिना परब्रह्म से युति संभव नहीं
नाद मूलाधार से उठना आरंभ होता है और सहस्त्रार में जा कर लय हो जाता है।साधक का मन इस नाद के साथ युक्त होने पर अनायास ही परब्रह्म पद तक उठ कर चिन्मय आकर धारण करता है और चैतन्य के अंदर अपने आप को मिला देता है।
परमहंस योगानंदजी ने इसे ओम समाधि कहा
नाद मूलाधार से उठना आरंभ होता है और सहस्त्रार में जा कर लय हो जाता है।साधक का मन इस नाद के साथ युक्त होने पर अनायास ही परब्रह्म पद तक उठ कर चिन्मय आकर धारण करता है और चैतन्य के अंदर अपने आप को मिला देता है।
परमहंस योगानंदजी ने इसे ओम समाधि कहा


