गैर राजनैतिक ट्वीट श्रृंखला में एक और ट्वीट:

किसी गांव में खेती से लोगों का भरण पोषण ठीक ठाक से हो जा रहा था। वहां कई तबकों के लोग रहते, किन्तु अधिकतर किसान होने में ही अपना अभिमान समझते। जमीन उपजाऊ होने के कारण खेती में मेहनत न के बराबर थी। बस बीज बो कर सो जाना ही खेती कहलाता
फिर लगातार दोहन से भूमि की उपजाऊ क्षमता धीरे धीरे कम होने लगी, और खेती करना कठिन होता गया। बीज बोने और काटने के अलावा अब खेतों में पानी और कई तरह के खाद की भी आवश्यकता पड़ने लगी।

इससे वहां के ज्यादातर किसानों ने स्वयं तो खेती को ही अपना व्यवसाय माना पर अपने बच्चो को इस से दूर रहने की प्रेरणा देने लगें। कोई भी पिता चाहेगा ही की उसके बच्चे को ज्यादा मेहनत ना करनी पड़े।

फिर धीरे धीरे वहां के किसानों ने एक नया तरीका निकाला और उसे कहा "बटैया"

अब वो दूर के गांवों से ऐसे लोगो को अपने गांव में बसने को कहने लगे जिनके पास अपनी जमीन नहीं थी, पर वे इनके इतर, मेहनती स्वभाव के थे।
फिर उनलोगो को इस शर्त के साथ, की जितनी उपज होगी उसका एक बड़ा भाग जमीन के मालिक का और बाकी उनका होगा, अपनी जमीन खेती करने के लिए दे दी।

कई वर्षो तक इसी नियम से गांव के लोग रहने लगे।
अब जो प्रवासी किसान थे, धीरे धीरे उनकी परिस्थिति भी बदलाव का शिकार हुई और उनके जीवन शैली में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया।

फुंस के घर से, मिट्टी के कच्चे घरों तक का सफर तय कर लिया उन्होंने।

यहां पर दो घटनाएं एक साथ हुई,
जमीन के मालिकों में ईर्ष्या का भाव बढ़ने लगा, और फसल के आधे मालिकों में अभिमान का।

जमीन के मालिकों की खेती की आदत रही नहीं, और इसलिए वो पूर्णतः उन प्रवासी किसानों पर निर्भर हो चुके थे खेती के लिए।

इस सत्य का ज्ञान प्रवासी किसानों को बहुत देर से हुआ, कुछ दो - तीन पुस्तों के बाद।
लेकिन, एक बार जब उन्हें इस सत्य का ज्ञान हो गया कि तब धीरे धीरे उपज के बंटवारे के शर्त को वो अपने अनुसार बदलने लगे।
एक चौथाई से शुरू हुआ किस्सा अब तीन चौथाई के पास घूमने लगा था।

कहानी के प्रारंभ में जब जमीन के मालिकों ने अपने बच्चो को खेती से दूर रहने की प्रेरणा दी थी, तब उनमें से कई, शहरों की तरफ गए और उद्योगों की सफलता से प्रभावित हुए थे।

वो भी वापिस गांव आकर कई तरह के उद्योग लगाना चाहते थे।
और तत्कालीन परिस्थिति उनके अनुरूप हो चली थी।

जमीन के मालिकों का समुदाय भी चाहता था कि अब इन प्रवासियों को गांव में कम से कम काम मिले, वे प्रवासियों में दिन प्रतिदिन बढ़ते हुए अभिमान को भांप गए थे।
कानूनी तौर पर तो अधिकांश जमीन अब भी पुराने मालिकों के ही नाम थी।
फिर क्या था, बच्चो ने जैसा जैसा कहा, मालिकों ने स्वागत किया और गांव में कई तरह के उद्योगों का निर्माण हुआ। पहले के जमीन के मालिक अब इन उद्योगों के मालिक हुए। पहले के प्रवासी किसान अब प्रवासी मजदूर हो गए और उनका अभिमान भी समय के साथ कम होते रहा।

१०
कुछ एक को छोड़ कर सारे ही कारखाने ठप्प पड़ गए, जिसका कारण किसी को भी पक्के तौर पर पता नहीं चला।
गांव के लोग कहते है, की द्वेष भाव से शुरू किया कोई भी कारोबार सफल नहीं हो सकता।
अब इसकी सच्चाई तो उन कारखानों के किसी मालिक, या किसी मजदूर को ही पता होगा।

११
अब हर बार की भांति मैं तो उसी गांव के बाहर चबूतरे पर बैठा हूं, और देख रहा हूं की:

कहानी के पहले भाग में , जमीन के मालिक और प्रवासी किसान दोनों एक दूसरे के पूरक बने।
बाद के हिस्से में अभिमान और ईर्ष्या ने अपनी भूमिका निभाई, और अंत में दोनों ने अपने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला ली।
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