अरबी लोककथाओं में एक दर्ज़ी का ज़िक्र मिलता है, जो इस तरह पोशाक सिलता था कि कपड़ा कहाँ से सिला गया है समझ ही नहीं आता था। ऐसा लगता था मानों किसी जुलाहे ने कपड़ा नहीं, सीधे पोशाक ही बुनी हो। उस पर पोशाकें भी ऐसी जो राजा से लेकर रंक तक की पहुँच में थी।
न उनमें कारीगरी का समझौता था और ना कलाकारी का।

उस दर्ज़ी ने जब बीसवीं सदी में एक शायर के रूप में दूसरा जन्म लिया, तो उसने हिंदी फिल्मों की धुनों पर शब्दों को इस तरह बैठाया कि समझ ही नहीं आता था कि धुन पहले बनी है या बोल पहले लिखे गए हैं।
धुन के मीटर ही नहीं, उसके हर घुमाव और बनावट पर बोल इस तरह बैठ जाते थे, जैसे वो शब्द ठीक उसी बनावट के के लिए बुने गए हों। इस गीतकार का जादू ये था कि शब्दों को बैठाने के लिए भाषा, भाव, किरदार और कहानी से कोई समझौता नहीं होता था।
पहले जन्म में उस दर्ज़ी का नाम पता नहीं क्या था लेकिन दूसरे जन्म में उसे शायर और गीतकार के रूप में मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से जाना गया।

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