वेटिंग फ़ॉर गोडो और लॉकडाउन

सेमुअल बेकेट रचित एक फ्रेंच नाटक है 'एन अतेन्दान्त गोदो' जो अंग्रेजी में 'वेटिंग फ़ॉर गोडो' के नाम से प्रचलित है। इसमें जीवन की नीरसता, एकाकीपन, वैयक्तिकता, अकेलेपन से ले कर जीवन में जीवित रहने के उद्देश्य आदि की बात हुई है।
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इसमें एक ऐसा इंतजार दिखाया गया है, और करने को कुछ न होने की ऐसी बेकारी दिखाई गई है कि ये जानते हुए भी कि गोडो कभी नहीं आएगा, ब्लादिमीर और एस्त्रागोन, हर दिन उसी जगह पर जाते हैं, जहाँ उन्हें उनसे मिलने का वादा कोई कर गया था।
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एक बार में समझ में आने वाली रचना नहीं है। कइयों को कई बार में भी समझ में नहीं आती। लेकिन, वो आपको आपकी साहित्यिक नासमझी के कारण 'समझ में नहीं' नहीं आती बल्कि ये इतनी गहन भावना को बुनियाद में रख कर लिखी गई है कि इसे समझने में उस मूर्ख को भी आसानी होगी जो उस अवस्था में है।
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बेकेट ने जब यह नाटक लिखा तो शुरु में कुछ खास रिस्पॉन्स नहीं मिला। लेकिन, एक जेल के कैदियों के सामने, एक जेल में जब इसका मंचन हुआ तो कई कैदी भावविह्वल हो कर रोने लगे। कहा गया कि बाहर के 'समझदार' लोगों से ज्यादा इस नाटक को ग्रहण करने की सहजता इन कैदियों में थी।
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इस नाटक के बारे में विवियन मर्सियर नामक एक आयरिश आलोचक ने लिखा कि इस नाटक में 'कुछ नहीं होता, वो भी दो बार' (Nothing happens, twice)। दो अंकों के इस नाटक में एक सड़क, एक ठूँठ और दो पात्र हैं जो किसी का इंतजार कर रहे हैं। आपको पता नहीं चलेगा कि क्या हो रहा है, और क्यों।
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कुछ ऐसी ही अवस्थाएँ हमारे जीवन में भी आती हैं। लॉकडाउन चल रहा है। कुछ भी नहीं हो रहा जो हमारे लिए 'हैपनिंग' होता है। जीवन, जिसे पारिभाषित करने में किताबें लिखी जा सकती हैं, वो ठहर चुका है। लोग इस अकेलेपन, इस इंतजार के अभ्यस्त नहीं हो पा रहे। वो समय काटने के तरीके ढूँढते हैं।
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जेल के कैदियों को ये नाटक तुरंत समझ में आ गया क्योंकि उनकी स्थिति ब्लादिमीर-एस्त्रागोन जैसी ही थी। ये अपनी सजा के खत्म होने का, मृत्यु या फाँसी का इंतजार कर रहे थे। वैसे इतंजार में आप अपनी ही बेल्ट से फाँसी लगाना चाहते हैं, उस खालीपन से छुटकारा चाहते हैं जो आपको खाए जाता है
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समय कीटने के तरीके तो मैं बता नहीं सकता क्योंकि ये लिख कर मैं स्वयं वही करने की कोशिश कर रहा हूँ, पर स्वयं को किसी भी माध्यम से अभिव्यक्त करने से बेहतर बहुत कम काम हैं। 'पैसिव कन्जम्प्शन' (बैठ कर जो मिल रहा है ग्रहण करते जा रहे हैं, सोचते तक नहीं) मत कीजिए।
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चाहे फिल्म देख रहे हैं, किताबें पढ़ रहे हैं, पेंटिंग देख रहे हैं, तो उसके पात्रों को, भावों को समझने की कोशिश कीजिए। इससे आपकी विश्लेषण क्षमता अच्छी होती जाएगी। जो किताब जिस समय की है, वहाँ के ऐतिहासिक, राजनैतिक और सामाजिक संदर्भों को जानने की कोशिश कीजिए।
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जो फिल्म आपने 2004 में कॉलेज के समय देखी थी, उसे दोबारा देखिए। मैं जो कह रहा हूँ वो शायद बेहतर समझ में आए। जो किताब आपने किसी के कहने पर उम्र से पहले पढ़ ली थी, उसे दोबारा उठाइए। आप बिलकुल नई किताब पढ़ रहे होंगे, एक अलग ही फिल्म देख रहे होंगे।
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