भगवान के अंशावतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को भारत के दक्षिण राज्य केरल के कालड़ी नामक ग्राम में शिव भक्त भट्ट ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु नामपुद्री और माता का नाम विशिष्टादेवी था ये पति-पत्नी परम शिव भक्त थे।
विवाह के बहुत दिन व्ययीत हो जाने के बाद भी इन्हें संतान प्राप्ति नहीं हुई तो इन्होंने कठोर तप करके महादेव को प्रसन्न किया।
एक दिन शिव इन्हें स्वप्न में दिखाई दिए और कहा कि भक्त मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ वर मांगो !
एक दिन शिव इन्हें स्वप्न में दिखाई दिए और कहा कि भक्त मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ वर मांगो !
तो शिवगुरु ने कहा कि प्रभु मुझे सर्वज्ञ पुत्र प्राप्ति का वरदान दें तो शिव ने कहा कि हे भक्त शिरोमणि ! जो सर्वज्ञ पुत्र होगा वो दीर्घायु नहीं होगा और जो दीर्घायु होगा वो सर्वज्ञ नहीं होगा।
इस पर शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की कामना की, तब शिव ने कहा कि मै स्वयं तुम्हारे यहाँ पुत्र रूप में जन्म लूंगा। कुछ काल के बाद वैशाख शुक्ल पंचमी को मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त तेजश्वी पुत्र को जन्म दिया।
तत्कालीन ज्योतिष विद्वानों ने उस बालक के मस्तक के चिन्ह, ललाट, नेत्र, तथा स्कंध पर शूल चिन्ह देखकर कर उसे शिव अवतार मानकर उस बालक नाम 'शंकर' रखा। अभी शंकर तीन ही वर्ष के ही थे कि इनके पिता का देहांत हो गया। बचपन से ये अति मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे।
छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था।
इनके संन्यास ग्रहण करने के विषय में कथा है कि एकमात्र पुत्र होने के कारण माँ इन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं दे रहीं थीं।
इनके संन्यास ग्रहण करने के विषय में कथा है कि एकमात्र पुत्र होने के कारण माँ इन्हें संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं दे रहीं थीं।
तब एक दिन नदी किनारे स्नान करते समय एक माया रची जिसमें एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लेता है और चिल्लाते हुए माँ से कहते हैं कि माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दे दो नही तो ये मगरमच्छ मुझे खा जाएगा।
इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की और जैसे ही माता ने संन्यास आज्ञा दी तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया।
जिस समय शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, तब भारत में वैदिक धर्मावलम्बी कमजोर होते जा रहे थे बौद्ध धर्म का वर्चश्व बढ़ता जा रहा था।
जिस समय शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, तब भारत में वैदिक धर्मावलम्बी कमजोर होते जा रहे थे बौद्ध धर्म का वर्चश्व बढ़ता जा रहा था।
ऐसे में शंकर प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रकट हुए और मात्र 32 वर्ष के जीवन काल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की। तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें।
किन्तु पिता की अकाल मृत्यु होने से ही बचपन में ही शंकर के सिर से पिता का साया दूर हो गया।
परिब्राजक सन्यासी के रूप में एक दिन ये भिक्षाटन हेतु ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुचें तो उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था।
परिब्राजक सन्यासी के रूप में एक दिन ये भिक्षाटन हेतु ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुचें तो उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था।
ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक शंकर के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी धनहीनता के विषय में बताया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति शंकर द्रवित हो उठे और वै अत्यंत आर्त स्वर में माँ श्री महालक्ष्मी का स्तोत्र 'कनक धारा' रचकर निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना की।
कुछ देर में माँ श्री महामहालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा करके ब्राम्हण परिवार की निर्धनता दूर की। यही बाल ब्रह्मचारी बालक 'शंकर' जगद्गुरु शंकराचार्य' के नाम से विख्यात हुए।
आइये आज हम सब आदि शंकराचार्य की जयंती के अवसर पर उन्हें वंदन करे।
आइये आज हम सब आदि शंकराचार्य की जयंती के अवसर पर उन्हें वंदन करे।
