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1996: सरकार और मीडिया का साधुओं के प्रति चरित्र ।

1966 में लोकसभा चुनाव से पहले, इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए दो हिंदू संत, स्वामी करपात्री जी और आचार्य विनोबा भावे, का आशीर्वाद मांगा।
उन्होंने गाय और अन्य मवेशियों के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 48 में भारतीय संविधान में निहित सिद्धांतों को लागू करने की शर्त पर इंदिरा गांधी को सफलता के लिए आशीर्वाद दिया।

इंदिरा गांधी ने अपनी चुनावी रणनीति में मुख्य प्रचार बिंदुओं में से एक के रूप में गोहत्या प्रतिबंध को रखा।
इसके कारण उन्हें हिंदू समूहों से बड़े पैमाने पर समर्थन मिला।

अपनी जीत के बाद, इंदिरा हिंदू संतों से अपना वादा निभाने में विफल रहीं और गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए हिंदू संगठनों की बार-बार की गई दलीलों को नजरअंदाज किया। उस समय प्रतिदिन लगभग 15,000 गायों का वध किया जाता था।
हताश हो कर, 7 नवंबर, 1966 को, जिसे गोपाष्टमी दिवस के भी नाम से जाना जाता है और हिंदू कैलेंडर के अनुसार गाय की पूजा करने के लिए सबसे पवित्र दिन माना जाता है, हिंदू संतों और गौ रक्षकों की भारी भीड़ ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की मांग के लिए संसद के सामने धरना दिया।
कई हिंदू संतों ने उपवास किया और शांतिपूर्ण विरोध किया। आधिकारिक संख्या यह है कि 10,000 प्रदर्शनकारी एकत्र हुए, लेकिन अनौपचारिक संख्या में कहा गया कि 3-7 लाख भारतीय संसद के बाहर एकत्र हुए थे।

साधुओं की संख्या से घबरा कर सरकार ने उन निहत्थे साधुओं को गोली मारने का आदेश दे दिया।
तब पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चलाईं, जिससे साधुओं की अंधाधुंध हत्या हुई।

इसके बाद, 48 घंटे का कर्फ्यू लगाया गया। उन 48 घंटो में क्या कुछ हुआ, आज तक ठीक से पता ना चला।

पहले ख़बर ये आई की विरोध में 5000 से अधिक हिंदुओं का बेरहमी से कत्ल किया गया था, और कई अन्य घायल हुए थे।
शवों को तुरंत हटा दिया गया और फेंक दिया गया या आग में डाल दिया गया।

पर बाद में यह अनुमान लगाया गया कि 375 हिंदू मारे गए थे।

अगर कुछ लोगों की माने तो सरकार ने दिल्ली के बाहरी इलाके में नरसंहार के सभी चश्मदीदों को हटाने के लिए अनुमानित 5000 बसों और सैन्य ट्रकों को तैनात किया,
ताकि नरसंहार की खबरें ना शामिल हों, और आसानी से उपलब्ध जानकारी का कोई स्रोत ना रहे। सरकार ने पत्रकारों और मीडिया के आउटलेट को इस घटना की कोई भी खबर प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी। एक पत्रकार, मन मोहन शर्मा ने फिर भी बाद में एक बयान दिया कि नरसंहार के सबूत भी सरकार द्वारा नष्ट
कर दिए गए थे। सरकार ने मीडिया को स्पष्ट रूप से आदेश दिया था कि किसी भी व्यक्तिगत रिपोर्टिंग की अनुमति नहीं थी, और सरकार द्वारा केवल प्रेस विज्ञप्ति को प्रकाशित किया जाना था।

घटनास्थल पर मौजूद तब के एक साधु ने एक इंटर्व्यू में कहा था की-
”बड़ी त्रासदी हो गई थी और सरकार के लिए इसे दबाना जरूरी था। ट्रक बुलाकर मृत, घायल, जिंदा-सभी को उसमें ठूंसा जाने लगा। जिन घायलों के बचने की संभावना थी, उनकी भी ट्रक में लाशों के नीचे दबकर मौत हो गई। हमें आखिरी समय तक पता ही नहीं चला कि सरकार ने उन लाशों को कहां ले जाकर फूंक
डाला या जमीन में दबा डाला। पूरे शहर में कफ्र्यू लागू कर दिया गया और संतों को तिहाड़ जेल में ठूंस दिया गया। केवल शंकराचार्य को छोड़ कर अन्य सभी संतों को तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। करपात्री जी महाराज ने जेल से ही सत्याग्रह शुरू कर दिया। जेल उनके ओजस्वी भाषणों से गूंजने लगा।
उस समय जेल में करीब 50 हजार लोगों को ठूंसा गया था।”

लेकिन आज इस घटना को मीडिया के माध्यम से संसद भवन पर किए गए पहले हमले के रूप में जाना जाता है।

दुख की बात ये है कि 54 साल बाद भी ना तो उन साधुओं को इंसाफ़ मिला ना ही अनुच्छेद 48 केंद्र में लागू है ।
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