कोरोना के भय से सारा जग संतप्त है। सब चाहते हैं कोई समाधान अथवा औषधि मिल जाए ताकि सब पुनः सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें। ऐसे में एक ज्ञानी, परम भक्त, आदरणीय बंधु ने मुझे “श्रीरामचरित मानस” के उत्तरकांड के दोहा १२० की चौपाइयाँ पढ़ने को कहा।

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यह चौपाइयाँ काकभुशुंडी-गरुड़-संवाद का भाग हैं, जहाँ गरुड़जी पूछते हैं कि मानव तन की क्या महिमा है, व इस रूप में किस किस प्रकार की मानस व्याधियाँ मनुष्य को सताती हैं। उत्तर में काकभुशुंडी जी भाँति भाँति के रोगों व उनके कारणों की चर्चा करते हैं।

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पहला मानस रोग जो कथावाचक काकभुशुंडी जी ने श्रोता गरुड़ को बताया वह है - *परनिंदा*

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥11॥

अहिंसा को वेदों ने परम धर्म कहा है - परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है (अर्थात परनिंदा ही मानसिक हिंसा है)।

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हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥12॥

महादेव व गुरु की निंदा करने वाला सहस्र जन्म तक मेंढक का जन्म पाता है और ब्राह्मणों की निंदा करने वाला अनेक नरक भोगकर कौए का जन्म लेता है॥

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सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥13॥

अभिमानी देवों व वेदों की निंदा कर रौरव नरक में पड़ते हैं। संत-निंदक उल्लू बनते हैं, जिन्हें मोह-रात्रि प्रिय है व ज्ञान-सूर्य अस्त है॥

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सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥

जो मूर्ख सबकी निंदा करते हैं चमगादड़ बनते हैं। तात! अब अन्य दुखद मानसरोग सुनो।

*चूँकि कोरोना चमगादडों से उपजा अतः सर्वप्रथम परनिंदा से बचें*

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मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥

सब रोगों की जड़ मोह है। काम से वात, लोभ से कफ बढ़ता है व क्रोध से पित्त।

*चूँकि कोरोना वात व कफ कारक है, इनके मूल काम व लोभ को त्यागें।*

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अन्य मानस रोग बखान कर, सबका समाधान -

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121॥

नियम, धर्म, आचार, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग पूर्ण रूप से नहीं जाते॥

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राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥

ये सब रोग नष्ट हो जाएँ यदि राम-कृपा से ऐसा संयोग बन जाए कि सतगुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो व विषयों से विरक्ति रूपी संयम हो व (शेष आगे)

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१०

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥

हरि-भक्ति रूपी संजीवनी हो; श्रद्धामयी बुद्धि रूपी अनुपान हो; ऐसा संयोग बने तो वे मानस रोग नष्ट हों, नही तो कोटि प्रयत्न से भी नही जाते॥

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११

संक्षिप्त सार-

- तन के सभी रोग मन की व्याधि से उपजते हैं

- लक्षण-अनुसार कोरोना का मूल परनिंदा, काम-वेग व अति-लोभ हैं; इनको त्यागें

- हर मानस-रोग के उपचार हेतु इन ४ का संयोग हो - गुरु में विश्वास, विषयों से विरक्ति, हरि-कृपा, श्रद्धामयी बुद्धि

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