उत्तराखंड / रोजगार (स्वरोजगार) ।

गुजरात मॉडल की बात करते हुए 2014 में मोदीजी दिल्ली के सफर पर निकले थे और कामयाब भी हुए , आज कल कोरोना वायरस के चलते हरीश रावत जी भीलवाड़ा मॉडल की बात भी करते हैं , इसी तरह हर नेता किसी ना किस मॉडल की बात करता ही रहता है ।
जब में छठवीं कक्षा में पढ़ता था तो निशंक जी एक बार स्कूल आये थे उस समय उन्होंने प्रदेश को दुग्ध प्रदेश बनाने की बात की तो शायद उरुग्वे अथवा पराग्वे का उदाहरण दिया था ! मुझे सही से अब याद नही है ।
आज @Muft_Nosh भाई की TL पर एक रिट्वीट देखा ट्वीट @alok_bhatt जी द्वारा किया गया था
एक सार्थक पहल की बात की थी उन्होंने , हालांकि थ्रेड पढ़ कर मालूम हुआ कि पिछले 4-5 साल से वो इस तरह की सोच रखते हैं अथवा बातें कर रहे हैं थोड़ी मायूसी हुई कि वो तो मुख्यमंत्री के सलाहकार हैं और इन कार्यो को प्रतिपादित करवा सकते हैं ।
लेकिन फिर भी उनके द्वारा ऐसी बातों को सार्वजनिक पटल पर रखना सुखदायी है ।
आलोक भट्ट जी यदि सुझाव रूप कुछ बातों पर ध्यान दे तो शायद यह कार्य आसानी से हो जाये और जो आप फण्ड की सोच रहे हैं वो भी सीमित ही खर्च हों ।
सबसे पहले तो किसी मॉडल की कॉपी करना एवं अपने राज्य को हमसे मिलते जुलते राज्यों एवं देशों से तुलना करना हमें छोड़ना होगा ।

दूसरा - सरकार को यह प्रश्न स्वयं से पूछना चाहिए कि आखिर इस कार्य को कोई भी क्यों करेगा ?

यदि सरकार / हम वाकई चाहते हैं कि इस क्षेत्र में कार्य हो तो
सबसे पहले कार्य शिक्षा में बदलाव की जरूरत है जो पढ़ाई हम करते हैं उसके साथ साथ एक अन्य कोर्स जो की सभी के लिए अनिवार्य हो ऐसी व्यवस्था की जाए जिसमे वुडेन वर्क , खेती की तकनीक , क्राफ्ट्स इत्यादि का ज्ञान , पेंटिंग , हर्बल इत्यादि की जानकारी इत्यादि शामिल हों ।
आप किसी भी व्यक्ति को इन रोजगारों से तभी जोड़ सकते हैं जब आप उनकी सोच पर चोट करेंगे एवं सोच पर चोट करने का सही तरीका शिक्षा ही है , आपके पास तो पलायन एवं उद्योग विभाग का डाटा होगा ही उसे स्टडी कीजिये कितने % लोग हैं और वे क्या करना चाहते हैं आपके कई सवालों के उत्तर मिल जाएंगे
सोचिए आर्मी में देश सेवा करने के बाद हम लोग सबसे ज्यादा होटल लाइन्स में हैं और बहुत स्किल्ड हैं , हर तरह का कार्य हम होटल में करते हैं बर्तन धोने से लेकर सेफ तक ।
सोचिए होटल में बर्तन धोना मंजूर है पर हम रेहड़ी नही लगाते

क्यों ?
क्योंकि हमारी मानसिकता पैसा कमाऊ पूत की ना होकर काल्पनिक इज्जत कमाऊ पूत की हो गयी है ,हमें बचपन से ही यह सिखा दिया गया है कि हल , लगाना , रेहड़ी लगाना निकृष्ट कार्य हैं यह मानसिकता शिक्षकों , घरवालों , गांव वालों ने बनाई है , हम सब भी इससे गुजर रहे हैं ।
कुछ साल पहले दिव्या रावत का नाम खूब उछला था , उनसे सीख (भेदचाल सही शब्द रहेगा ) लेते हुए बहुत से लोग मशरुम का कार्य करने लगे आज अगर आप पता करेंगे तो उनमें से 90% लोग कार्य बंद कर चुके हैं ।
कारण मुनाफा देखना लेकिन चीजों को सही से ना समझना ।
आलोक भट्ट जी यदि वाकई इस दिशा में कार्य करना है तो सबसे पहले धरातलीय सच्चाई अपनानी होगी उस सच्चाई को समझना होगा दुर्भाग्य है कि अभी तक जितनी भी योजनाएं चली हैं वो बिना किसी जांच , अन्वेषण के चली हैं । जिसका नतीजा पलायन के रूप में सबके सामने है ।
हमें दो कटेगरी में उत्तराखंड को बांटना ही होगा पहाड़ी क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए आपको अन्य मॉडल की आवश्यकता पड़ेगी , वहां होटल मैनेजमेंट , ब्यूटी पार्लर , प्लम्बर इत्यादि नही बल्कि , रेशम , फूल , वुड वर्क इत्यादि के लिए लोग तैयार करने हैं ।
वहीं मैदानी भाग में आपको अन्य तरह का मॉडल बनाना होगा , जो वहां की परिस्थिति के हिसाब से सही हो ।
इसमें बहुत अधिक खर्चा नही आएगा , मैं आप जितना पढ़ा लिखा तो नही हूँ लेकिन पहाड़ में यदि आपको किसी मॉडल के बारे में जानकारी चाहिए हो या
किस तरह यह कार्य करने हैं यह जानना हो तो मैं सदैव तैयार हूं ।

यह थ्रेड आपके विचारों पर प्रश्न चिन्ह नही बल्कि कुछ सुझाव हैं ।

@Muft_Nosh
@alok_bhatt

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