तू अकेला नहीं है विष्णु, आज तू मगध का पतन देख रहा है। कल तू मगध का उत्थान का चरित्र देखेगा।

जिन्हें दूसरों को पाठ पढ़ाना हैं, उनको अपना मार्ग स्वयं ढूंढना होता है।
विष्णु, जलना, ज्ञान की साधना में जलना, सूरज नही दीपक तो बनना।

>> एक दिन मागधों में जल रहा आक्रोश आप जैसों को उखाड़ फेखेगा।
तक्षशिला के पराजय में केकय का विजय नहीं है तक्षशिलाधीश ।
- इंद्रदत्त
पवित्रता , त्याग और साहसियों की भूमि
स्वर्ग से भी श्रेष्ठ भारत भूमि

जनपथों के आधार पर भारतीयों को बांटना अनुचित है, हम सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता से एक ही माता के गर्भ में सहोदर जैसे हैं।
-आचार्य चाणक्य
कब तक एक जनपथ दूसरे जनपथ से लड़ता रहेगा?
कब हम जनपथ से ऊपर उठकर राष्ट्र की एकता के बारे में सोचेंगे?
-आचार्य चाणक्य
तुम जीवित रहो, यही तुम्हारा दंड है सिंहरण।
-आंभी राज
केवल हम ही मानवीय अधिकारों का पालन करते आये, और इन शरणार्थियों को प्रवेश दें, तो कल यही शरणार्थी, इसी पौर सभा में बैठकर , उनका तथाकथित अधिकारों का मांग करेंगे।
क्या तक्षशिला की शासन उत्तर दे सकती है, की शरणार्थियों के नाम पर नए कर का भार न हो?
#caa_nrc
यदि अलक्षेन्द्र उनके मित्रों में आम्भी कुमार का स्थान सर्वोपरि रहने देंगे, तो मेरे देश का द्वार उनके लिए खुले हुए हैं।
-आम्भी कुमार
मूर्ख, तू अपना मस्तक का रक्षा करने के लिए, इस भारत का मस्तक दाव पर लगा रहे हो आम्भी!!
-आम्भी राज
अपने झूठे अहंकार के कारण पूरे देश पर द्रोह कर रहा है, आम्भी!
तक्षशिला भारत का अभिन्न अंग है आम्भी।
इस प्रदेश का द्वार खोल, तुम अलक्षेन्द्र को भारत पर आक्रमण करने का आह्वान दे रहे हो आम्भी!
-आम्भी राज।
क्या दशरथ की पुत्र भरत का पौत्र, तक्ष से स्थापना हुई नगरी,अभी यवनो के हाथों होंगी?
अभिशप्त है तू तक्षशिला! पहले शकुनि और अभी आम्भी जैसे राजा तुझ पर राज कर रहे हैं।
-आम्भी राज।
अपने ही भूमि पर अपने ही ध्वजों को लेकर इतने उलझे हो तो इसी धरती पर यवनों की ध्वज लहराता हुआ देख कितना उलझोगे आम्भी कुमार?
-आचार्य चाणक्य
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आम्भी: अलक्षेन्द्र आतताई नही है आचार्य, वह विश्व विजय के लिए निकला देवपुत्र है।

चाणक्य: पाश्चात्य जगत ने इस धरती को सिर्फ एक ही देवपुत्र दिया है। पर यह वह भूमि है जिसने करोड़ों देवपुत्रों को जन्म दिया है। यह, वह धरा है जहाँ मानव को भी ईश्वर बनने का अवसर दिया जाता है।
भारत की मिट्ठी चंदन जैसी है धननंद, इसे अपने माथे पे लगाओगे तो समस्त भारत की प्रजा तुम्हे अपने हृदयों का सम्राट बनाएगी।
-आचार्य चाणक्य
तन से मन से धन से, निश्चल हो निर्मल मति से, श्रद्धा से मस्तक नत से, हम करें राष्ट्र आराधन, आराधन।। हम करें राष्ट्र आराधन,हम करें राष्ट्र आराधन तन से मन से धन से, तन मन धन जीवन से हम करें राष्ट्र आराधन। अंतर से, मुख से, कृति से, निश्चल हो निर्मल मति से,
श्रद्धा से मस्तक नत से, हम करें राष्ट्र अभिवादन हम करें राष्ट्र अभिवादन।। अपने हस्ते शैशव से, अपने खिलते यौवन से, प्रौढ़ता पूर्ण जीवन से, हम करें राष्ट्र का अर्चन।। अपने अतीत को पढकर,अपना ईतिहास उलटकर अपना भवितव्य समझकर, हम करें राष्ट का चिंतन
है याद हमें युग युग की जलती अनेक घटनायें
जो मां के सेवा पथ पर आई बनकर विपदायें
हमने अभिषेक किया था जननी का अरिशोणित से
हमने शृंगार किया था माता का अरिमुंडो से
हमने ही ऊसे दिया था सांस्कृतिक उच्च सिंहासन
मां जिस पर बैठी सुख से करती थी जग का शासन
अब काल चक्र की गति से वह टूट गया सिंहासन
अपना तन मन धन देकर हम करें राष्ट्र आराधन।।
हम करें राष्ट्र आराधन, हम करें राष्ट्र आराधन
तन से मन से धन से, तन मन धन जीवन से,
हम करें राष्ट्र आराधन।।
विश्व विजय केलिए निकला है तू,
लेकिन विजय की इच्छा से पराजित हो रहा है ।
कामना पर विजय पा ।
-ऋषि कल्याण
हर एक व्यक्ति को उतनी ही भूमि पर अधिकार रहती है, जितनी भूमि पर वह खड़ा रह सकता है।
और, जब वह मर जाता है, तब उतनी ही भूमि पर उसका अधिकार रहता है, जिसमे वह गाड़ दिया जाता है।
अनुजदेव: मुझसे सावधान रहना विष्णुगुप्त
विष्णु: और तुम मुझसे ।
चंद्रगुप्त: उत्तिष्ठ भारत कहकर आप समय को भी आवाहन देते है, अब आप मौन क्यों है आचार्य?
कहके देखिये, आप के लिए मैं मृत्यु के द्वार भी खतखटाऊंगा।
विष्णुगुप्त: तुम मुझे जीवित चाहिए चंद्रगुप्त।
कुलपति: कब तक अपनी शिखा को ऐसे बंधन मुक्त रखोगे विष्णुगुप्त?
विष्णु: जब तक मैं इस राष्ट्र का गौरव नहीं बढ़ाता, तब तक अपनी शिखा नहीं बांधूँगा।
धन्य है भारत की वह पग पग भूमि जहाँ कतिपय ब्राह्मणों ने अलक्षेन्द्र का विरोध किया, विद्रोह किया, और हस्ते हस्ते मृत्यु को स्वीकार किया।
नादमस्तक हूँ अश्वटको के वीरों को जिन्होंने भारत में रहते ही अलक्षेन्द्र का विरोध किया।
दुर्भाग्य है कि इस धरा का संतान पर आक्रमण करने के लिए आक्रांताओं का साथ आम्भी,पौरव,व अन्य शासकों ने दिया।अपने ही बांधवों के खड्ग से अपने ही रक्त बहा था।अपने ही बाणों से अपने ही सीने छलनी हुई। अपने ही हाथों से अपने ही घरों में आग लगाई, और रक्त का विजय तिलक आक्रांताओ का माथे पर लगा
भय सिर्फ यवनो का दास्य का ही नही है।पर उस सांस्कृतिक दास्य का भी है जो धीरे धीरे समाज में जन्म लेगी।पराजित राष्ट्र तब तक पराजित नहीं होता जब तक वह अपनी संस्कृति व अपनी मूल्यों का रक्षा कर पाता है।
पर क्या धर्म व जाति की नाम पर खंड खंड में बटा यह राष्ट्र आक्रांताओ से अपनी संस्कृति की रक्षा कर पायेगा? यदि आक्रांताओं को इस धरती पर स्थिर होना है, तो व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ने वाली संस्कृति पर आक्रमण करना होगा और वे करेंगे, यदि हम सावधान नहीं हुए तो।
और यदि हमने सांस्कृतिक विरासत को छोड़ा,तो हमारा पतन निश्चित है।अनुभव कहता है कि पराजित मन पराजित राज्य,व पराजित राष्ट्र प्रायः विजेता के संस्कार व संस्कृति को स्वीकार करते है।इसलिए यदि इस राष्ट्र का सुप्त चेतना को जागृत नही किया गया,इस राष्ट्र को संघटित नहीं किया गया...>>
>>तो इस राष्ट्र को विधर्मी दास्यता से मुक्त करना कठिन हो जाएगा।विद्या ही मुक्ति का मार्ग दिखाती है।जन्म मरण से मुक्ति चाहने वाले भारतीय यवनों का बंधन स्वीकार करेंगे?
इस राष्ट्र को यवनों से मुक्त करना है और इस राष्ट्र की मुक्ति में ही तुम्हारी मुक्ति है।
इस राष्ट्र में शक्ति है,पर वह सुप्त है।उसको जागृत करो।उस साहस को जागृत करो जो इस समाज में है।-->>
->उस सामर्थ्य को जागृत करो जो इस राष्ट्र में है।पर ध्यान रहे, स्वतंत्रता का इस यज्ञ यौवन का बलिदान मांगेगा, स्वार्थ का बलिदान मांगेगा,और तो और जागृत हो रही राण चण्डिका जीवन का बलिदान मांगेगी।

हर हर महादेव https://abs.twimg.com/emoji/v2/... draggable="false" alt="🚩" title="Triangular flag on post" aria-label="Emoji: Triangular flag on post">https://abs.twimg.com/emoji/v2/... draggable="false" alt="🚩" title="Triangular flag on post" aria-label="Emoji: Triangular flag on post">
>>
>>पर ध्यान रहे, जागृति लक्ष्य है, आक्रांताओं से मुक्ति लक्ष्य है,बलिदान साध्य नहीं साधन है,अतः बलिदान पौरुष रहित न हो,व्यर्थ न हो।और इस यज्ञ में आक्रांताओं को समर्पित करना है।निश्चय करो कि प्रत्येक हृदय में मुक्ति का दीपक जलेगा,और वह आक्रांताओं केलिए दावानल बनेगा।
हर हर महादेवhttps://abs.twimg.com/emoji/v2/... draggable="false" alt="🚩" title="Triangular flag on post" aria-label="Emoji: Triangular flag on post">
माँ भारती तुम्हारा मार्ग प्रशस्त करे।
उत्तिष्ठ भारताः।।
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यदि शिक्षा रोकनी पड़ी तो रोक दिया जाए।
क्यों कि जो शिक्षा यह नही सिखाती कि राष्ट्र सर्वोपरि है,तो उसे रोक दिया जाए।
अमृत की अपेक्षा रखने वालों को,जीवन में विषपान के लिए भी तैयार रहना पड़ता है आचार्य।
-आचार्य चाणक्य।
सामर्थ्य ही जीवन है और दुर्बलता मृत्यु।
और यदि यह राष्ट्र दुर्बल रहेगा तो यह राष्ट्र नहीं रहेगा।अतः इस राष्ट्र को मृत्यु से भी खेलना सीखना होगा।मैं काल का आह्वान कर चुका हूँ,क्या आप मृत्यु से खेलने के लिए उदधृत है?
-आचार्य विष्णुगुप्त।
इतनी आसानी से विष्णुगुप्त नहीं मरेगा।
जिनमे स्थितियों को बदलने का साहस नहीं होता है, उनको स्थितियों को सहना पड़ता है।
स्थितियों से भागने का प्रयत्न मत कर।
उनको बदलने का प्रयत्न कर।
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला,स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीरपुत्र हो,दृढ प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है-बढे चलो,बढे चलो
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ....
विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के-रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में,सुवाड़वाग्नि-से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो,बढे चलो,बढे चलो !
तरुण वीर देश के मूर्त वीर देश के
जाग जाग जाग रे मातृ भू पुकारती
शत्रु अपने शीश पर आज चढ के बोलता
शक्ति के घमण्ड मे देश मान तोलता
पार्थ की समाधि को शम्भु के निवास को
देख आँख खोल तू अर्गला टटोलता
अस्थि दे कि रक्त तू
वज्र दे कि शक्ति तू
कीर्ति है खडी हुई आरती उतारती। मातृ भू पुकारती
आज नेत्र तीसरा रुद्र देव का खुले
ताण्डव के तान पर काँप व्योम भू डुले
मानसर पे जो उठी बाहु शीघ्र ध्वस्त हो
बाहु-बाहु वीर की स्वाभिमान से खिले
जाग शंख फूंक रे
शूर यों न चूक रे
मातृभूमि आज फिर है तुझे निहारती। मातृ भू पुकारती...
आज हाथ रिक्त क्यों जन-जन विक्षिप्त क्यों
शस्त्र हाथ मे लिये करके तिरछी आज भौं
देश-लाज के लिए रण के साज के लिए
समय आज आ गया तू खडा है मौन क्यों
करो सिंह गर्जना
शत्रु से है निबटना
जय निनाद बोल रे है अजेय भारती। मातृ भू पुकारती।।
यदि हम जनशक्ति और उसकी भवनाओं की उपेक्षा की, वो किसी दिन हमें इस आसन से उठाकर ही दम लेगी।
- गंधार का महामंत्री (सुषेण)
जितना इस राष्ट्र को हानि, दुर्जनों के दुर्जनता से हुई है, उससे अधिक हानि इस राष्ट्र के सज्जनों की निष्क्रियता से हुई है, इंद्रदत्त।
- आचार्य विष्णुगुप्त
जो भी मस्तक अलक्षेन्द्र का स्वागत में झुकेगा, वह कटेगा।
- आचार्य चाणक्य
तुम में सामर्थ्य है, आम्भी कुमार, पर स्वार्थ ने तुम्हारा सामर्थ्य को ग्रसित कर रखा है। यदि समर्पण करना ही है, तो अपने समस्त स्वार्थों को गुरुकुल को समर्पित कर दो और मुक्त हो जाओ।
- आचार्य विष्णुगुप्त
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