दक्षिण अफ्रीका की अफ़ीकी नेशनल कांग्रेस के सांसद एंड्रयू फ़ींसटीन की एक मशहूर किताब है, जिसका शीर्षक है- ‘द शैडो वर्ल्ड: इनसाइड द ग्लोबल आर्म्स ट्रेड’ जो वर्ष 2011 के आख़िर में छपी थी .
इस किताब में ब्रिटिश हथियार कम्पनी बीएइ सिस्टम्स द्वारा दक्षिण अफ्रीका, तंज़ानिया और पूर्वी यूरोप के देशों को हथियार बेचने की मामलों की पड़ताल की गयी है.
ये किस्सा पहले किसी न्यूज़ वेबसाइट पर पढ़ा था जो उस समय कॉपी कर के रखा था और चुनाव ख़त्म होने का इंतज़ार का रहा था जिससे पोस्ट कर सकूँ :)
इसमें ब्रिटेन, स्वीडन और जर्मनी से बीएइ के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका को हथियार बेचने का उल्लेख है. बस यह एक किताब विनाश के सामान के धंधे को हमारे सामने खोल देने के लिए बहुत है.
दक्षिण अफ्रीकी सरकार द्वारा हथियारों की कम्पनी के लेन-देन की जांच न कराए जाने के कारण फ़ींसटीन ने पार्टी और राजनीति से किनारा कर लिया. अब वे लंदन में रहते हैं. इस किताब में पूर्व राष्ट्रपति जैकब ज़ुमा का कच्चा चिठ्ठा क़ायदे से खोला गया है.
यह प्रकरण जुमा के पतन और रामफोसा के राष्ट्रपति बनने में एक कारक रहा था. रामफोसा कुछ साल पहले हमारे गणतंत्र दिवस समारोहों में राष्ट्रीय अतिथि थे.
जब रामफोसा राष्ट्रपति बने, तो ज़ुमा की बर्बादी के मुख्य कारण सहारनपुर से जाकर दक्षिण अफ्रीका में सबसे धनी लोगों में शुमार होनेवाले गुप्ता बंधुओं पर गाज गिरी और उन्हें देश छोड़ना पड़ा.

गुप्ता बंधुयों के बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं
https://en.wikipedia.org/wiki/Gupta_family
इन बंधुओं और ज़ुमा परिवार की सांठगांठ इतनी मज़बूत थी कि दक्षिण अफ्रीका में इन्हें गुप्ता ब्रदर्स की जगह ‘ज़ुप्ता ब्रदर्स’ कहा जाने लगा था. उत्तराखंड की उस वक़्त की कांग्रेसी सरकार ने इन्हें वाई श्रेणी की सुरक्षा दी थी.
और फिर राज्य की भाजपा सरकार ने इन्हें ज़ेड श्रेणी की सुरक्षा देदी थी . ( हँसना मना है)

कुछ महीने पहले उस देश की जांच एजेंसी ने उनपर से कुछ आरोप वापस लिया है या जांच रोक दी है. फिर ख़बर आयी थी कि रामफोसा 26 जनवरी को राजपथ पधारेंगे.
इस लेख के लेखक की बड़ी अच्छी पंक्ति है एक कि"अगर दुनिया की राजनीति और कॉरपोरेट जगत के नैतिक पतन का पाताल देखना हो, तो हथियारों के कारोबार पर नज़र डालना चाहिए, चाहे वो कारोबार युद्ध के हथियारों व साजों-सामान के हों या छोटे हथियारों के"

इस किताब को पढने के बाद आप सहमत हो जायंगे...
चूंकि चर्चा राफ़ेल की है, तो हम बातचीत को बड़े हथियारों तक ही सीमित रखें, पर यह बताते हुए आगे बढ़ते हैं कि छोटे हथियारों की ख़रीद-फ़रोख़्त की एक बड़ी बानगी 17 दिसंबर, 1995 को रात में पुरुलिया में विदेशी जहाज़ से अवैध रूप से कलाश्निकोव और पिस्तौल बरसाए गए थे.
तत्कालीन सरकार ने उस कांड के मुख्य हथियार दलाल पीटर ब्लीच को ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के निवेदन पर राष्ट्रपति की ओर से माफ़ी दिलाकर 2004 में रिहा कर दिया था. उस मामले की गंभीर पड़ताल पत्रकार चंदन नंदी ने की थी .
यदि आप यह भूलकर कि पुरूलिया जैसी कोई वारदात भी कभी हुई थी, उनकी किताब ‘द नाईट इट रेंड गंस’ पढ़ेंगे, तो लगेगा कि आप एक अंतरराष्ट्रीय माफ़िया, हथियार बनाने वाले, सरकारें, राजनेता, नौकरशाह, बैंकर, साधु आदि किरदारों से भरा ज़ोरदार क्राइम फ़िक्शन पढ़ रहे हैं.
यही हाल बड़े हथियारों की कथा पढ़ते हुए होता है. एक मज़ेदार बात यह भी है कि असली दुनिया की ये कहानियां बिना द एंड के होती हैं, इनके दोनों सिरे कभी पकड़ में नहीं आते.
अब आप राफ़ेल को ही लें, तो इस सौदे की भूमिका तीन दशकों से बनायी जा रही थी. उस भूमिका की पहली तारीख़ का पता करना नामुमकिन है, जैसे कि यह जानना मुश्किल है कि बोफ़ोर्स के कथानक का आख़िरी सीन कब मंचित हुआ या होगा.
यहां इस किताब का उल्लेख तीन कारणों से किया गया है. पहला कारण पहले ही उल्लिखित है कि हथियार व्यापार में परदे के पीछे का सच सिर्फ़ इस किताब से जाना जा सकता है. दूसरी वजह यह है कि राफ़ेल की कथा में बीएइ सिस्टम्स भी एक शुरुआती किरदार है, जिसकी पहले हिस्से में दिलचस्प भूमिका है.
यह किताब 2011 में जब आयी थी, तभी अरब विद्रोहों के सिलसिले का शिकार होकर लीबिया के शासक कर्नल ग़द्दाफ़ी अपना तख़्त और अपनी जान दोनों गंवा चुके थे.
पर उनका हथियार ख़रीदने का मामले और लीबिया के हालात ने एंड्रयू फ़ींसटीन की किताब के विश्लेषण को तुरंत एक नया उदाहरण दे दिया.
ग़द्दाफ़ी द्वारा ख़रीद, उनपर हमले में राफ़ेल का डेमो के रूप में इस्तेमाल और तत्कालीन फ़्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सार्कोज़ी की भूमिका जैसे तत्व राफ़ेल की कहानी के भारतीय संस्करण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं.
इस लेख में लेखक ने एक किताब की और चर्चा की थी और वो थी - एंथनी सैम्पसन की ‘द आर्म्स बाज़ार: फ्रॉम लेबनान टू लॉकहीड’. ब्रिटिश लेखक और पत्रकार सैम्पसन ने दक्षिण अफ्रीका को नस्लभेद और उपनिवेशवाद से आज़ाद करानेवाले नेल्सन मंडेला को 1964 के मुक़दमे के दौरान दिए गए भाषण पर सलाह दी थी.
वह भाषण दुनिया के चुनिंदा भाषणों में शामिल है. इसी मुक़दमे में मंडेला को बरसों काल कोठरी में क़ैद रहने की सज़ा मिली थी. साल 1977 में छपी ‘द आर्म्स बाज़ार’ में उन्होंने हथियारों के कारोबार का पूरा इतिहास लिख दिया है.
यह किताब अपने विषय की ज़रूरी किताब है और क्लासिक में गिनी जाती है.

इसमें एक किरदार सऊदी व्यापारी अदनान ख़शोगी भी है, जो अपने दौर में दुनिया के सबसे धनी लोगों में था.
किताब में बताया गया है कि कैसे यह अमेरिका से सऊदी शाहों को भारी मात्रा में हथियार बेचा करता था. इसमें ईरान के शाह को हथियार बेचने का भी ब्यौरा है. यह ईरान-कोंट्रा मामले में भी शामिल था.इस मामले में अमेरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल में अमेरिका ने ईरान को हथियार बेचा था.
उस समय जिमी कार्टर द्वारा ऐसे लेन-देन पर लगायी गयी पाबंदी लागू थी. तब अयातुल्लाह ख़ुमैनी भी अमेरिका से संबंध सुधारने की कोशिश में थे. हाल में तुर्की में सऊदी दूतावास में शहज़ादा मोहम्मद बिन सलमान के भेजे गए हत्यारों के हाथों मारे गए पत्रकार जमाल ख़शोगी अदनान ख़शोगी के भतीजे थे.
पहले लिख चुका हूं इसपर ... https://twitter.com/Shrimaan/status/1056237857726066688?s=09
डोडी फ़ायेद अदनान ख़शोगी की बहन के बेटे थे, जो राजकुमारी डायना के प्रेमी थे और उन्हीं के साथ एक "संदिग्ध कार दुर्घटना" में मारे गए थे.
अब यह उल्लेख करना भी ज़रूरी हो जाता है कि फ़रवरी, 1991 में उसकी दिल्ली यात्रा बड़ी चर्चा का विषय बनी थी.
हवाई अड्डे पर उसके स्वागत के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के सचिव सीबी गौतम, चंद्रास्वामी के नज़दीकी कैलाशनाथ अग्रवाल और जेके जैन खड़े थे.
वहां से खशोगी को सीधे चंद्रशेखर के भोंडसी आश्रम ले जाया गया. वहां चंद्रास्वामी भी थे, जिन्हें ख़शोगी अपना गुरु मानता था. बाद में जैन के यहां रात्रिभोज हुआ था जिसमें नानाजी देशमुख, फ़ारूक़ अब्दुल्लाह, सुब्रहमण्यम स्वामी, ओमप्रकाश चौटाला आदि अनेक दिग्गज शामिल हुए थे.
राजीव गांधी सरकार के वित्तमंत्री वीपी सिंह और उनके सचिव भूरेलाल के कहने पर रुपया इधर-उधर करने के मामलों की जांच कर रहे फ़ेयरफ़ैक्स के प्रमुख माइकल हर्शमैन ने आरोप लगाया था कि फ़र्ज़ीवाड़ा के दस्तावेज़ों से ख़शोगी ने उन्हें भरमाने की कोशिश की थी.
उस समय के बोफ़ोर्स प्रमुख मार्टिन आर्दबो का एक टेप बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें वह कहा रहा था कि भारत में बिना माल खिलाए कोई काम नहीं होता है. कहा जाता है कि यह टेप अदनान ख़शोगी ने ही उपलब्ध कराया था.
आर्दबो बोफ़ोर्स सौदे के समय भारत में ही रहा था और इस दौरान उसके प्रधानमंत्री से मिलने की बात कही जाती रही है. टेप के समय ख़शोगी और चंद्रास्वामी ने कहा था कि वे आर्दबो से नहीं मिले हैं, पर इन तीनों की तस्वीर भी सामने आ गयी थी.
मामला पुराना पड़ गया है, पर यह सोचना मज़ा देता है कि चंद्रास्वामी और ख़शोगी किसकी तरफ़ से राजीव गांधी और वीपी सिंह दोनों को नापना चाहते थे. राजीव हत्याकांड की जांच के दौरान भी चंद्रास्वामी पर सवाल उठे थे.
यहां यह कह देना भी प्रासंगिक होगा कि राजीव गांधी हत्याकांड के पीछे हथियार लॉबी के होने का भी संदेह किया जाता रहा है. ख़शोगी और चंद्रास्वामी की कहानी में मिस इंडिया पामेला बोर्डेस का भी नाम ख़ूब उछला था.
हथियारों के विवाद में महिलाओं का भी उल्ल्लेख होता रहा है. राफ़ेल भी इस बात से अछूता नहीं है.

हथियारों के सौदे को महज सुरक्षा या सामान्य ख़रीद-फ़रोख़्त के रूप में देखना एक सरलीकरण है. इसके साथ भू-राजनीतिक समीकरण, कमाई, दलाली और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अनेक पेंच जुड़े होते हैं.
‘द गार्डियन’ में दो दिसंबर, 2010 को जेसन बर्क ने लिखा था कि उस महीने भारत के दौरे पर जा रहे तत्कालीन फ़्रांसीसी राष्ट्रपति सार्कोज़ी और रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव भारत के साथ खरबों रुपए के हथियारों के सौदे पर दस्तख़त कर सकते हैं.
उसमें यह भी बताया गया था कि ‘उभरता दक्षिण एशियाई ताक़त भारत’ अपनी सैनिक क्षमता के महत्वाकांक्षी आधुनिकीकरण पर 100 अरब पाउंड ख़र्च करने जा रहा है और इस बड़े बाज़ार पर पश्चिमी देशों की नज़र है. भारत की ऐसी कोशिशें के पीछे चीन की बढ़ती ताक़त के बरक्स ख़ुद को तैयार करना बताया गया था.
बर्क ने लिखा था कि सार्कोज़ी आठ अरब पाउंड के 120 राफ़ेल जहाज़ों को बेचने के लिए प्रयास करेंगे. रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हालिया दौरे में बड़ी क़ीमत के साजो-सामान बेचने का सौदा तय किया है, जिससे अमेरिका में ‘हज़ारों रोज़गार’ पैदा हुए हैं.
जब सार्कोज़ी भारत को राफ़ेल बेचने की कोशिश कर रहे थे, तब पाकिस्तान को बेची गयीं अगोस्ता पनडुब्बियों के मामले में दलाली का मामला गरम था. उसी साल (2010) लक्ज़मबर्ग पुलिस रिपोर्ट दे चुकी थी कि सौदे में दलाली का लेन-देन लक्ज़मबर्ग में पंजीकृत दो कंपनियों के मार्फ़त हुआ था.
दोनों कम्पनियां 1994 में तत्कालीन फ़्रांसीसी प्रधानमंत्री एडवर्द बलादुर और उनके बजट मंत्री निकोलस सार्कोज़ी के सीधे आदेश से बनी थीं.
इन कंपनियों के माध्यम से दलाली के धन का एक हिस्सा 1995 के राष्ट्रपति चुनाव में बलादुर के प्रचार में खर्च हुआ जिनकी उम्मीदवारी को सार्कोज़ी का समर्थन हासिल था और चुनाव के समय वे प्रवक्ता भी थे.
साल 2017 में बलादुर पर फ़्रांस में चार्जशीट भी दायर हुई. यह सौदा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो और दो फ़्रांसीसी राष्ट्रपतियों- फ़्रंकवा मितरां और जैक शिराक- के कार्यकालों में 1992-97 के बीच हुआ था.
तब बाद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने भुट्टो के पति आसिफ़ अली ज़रदारी निवेश मंत्री हुआ करते थे. इन पनडुब्बियों के लिए काम कर रहे 11 फ़्रांसीसी इंजीनियरों की मौत आठ मई, 2002 को कराची में एक आतंकी हमले में हुई थी. इस घटना में दो पाकिस्तानी इंजीनियर भी मारे गए थे.
इस घटना की कुछ जांच रिपोर्टों में इंगित किया गया था कि दलाली के पैसे को रोकने से नाराज़ होकर यह हमला हुआ था और इसमें पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों की मिलीभगत हो सकती है. इस मामले में जांच को रोकने और घटना पर परदा डालने के ठोस आरोप भी पाकिस्तानी अधिकारियों पर लगे थे.
साल 2010 में जब इस मामले में नयी जानकारियां सामने आ रही थीं, तब सार्कोज़ी फ़्रांस के और ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति हुआ करते थे. उसी समय सार्कोज़ी राफ़ेल ख़रीदने के लिए भारत से बात कर रहे थे.
और जब सार्कोज़ी भारत को राफ़ेल बेचने की कोशिश कर रहे थे, उसी समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन यूरोफ़ाइटर टाइफ़ून लड़ाकू भारत को बेचना चाहते थे. भारत ने इशारा दे दिया था कि उसकी पहली पसंद राफ़ेल है.
यूरोफ़ाइटर टाइफ़ून का निर्माता बीइए सिस्टम्स है, जिसका उल्लेख शुरू में आया था. साल 2012 और 2013 की ‘द गार्डियन’ रिपोर्टें बता रही थीं कि कैमरन लगातार भारत को मनाने की कोशिशें कर रहे थे.
इससे कुछ साल पहले यह कंपनी विभिन्न देशों- सऊदी अरब, चेक रिपब्लिक और मध्य यूरोप के देशों- से हथियारों के सौदों में भ्रष्टाचार करने और दलाली देने का अपराध स्वीकार कर चुकी थी.
शायद यह एक कारण रहा होगा, जिसके आधार पर भारत सरकार ने ब्रिटेन के साथ सौदे में दिलचस्पी नहीं दिखायी होगी क्योंकि तब अगुस्ता-वेस्टलैंड वीवीआइपी हेलीकॉप्टरों के सौदे में दलाली के लेन-देन का मामला सामने आ चुका था.
‘द गार्डियन’ में दो फ़रवरी, 2012 को निकोलस वाट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि कैमरन लड़ाकू विमानों समेत अन्य व्यापारिक मामलों में भारत से सहमति इस वजह से नहीं बना पा रहे हैं क्योंकि गांधी परिवार से उनके अच्छे संबंध नहीं हैं.
उस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि सौदा न हो पाना कैमरन के लिए बड़ा झटका है क्योंकि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने पहले बड़े व्यापारिक दौरे के लिए (जुलाई, 2010) भारत को चुना था और अपने साथ छह कैबिनेट मंत्रियों और शीर्ष उद्योगपतियों का प्रतिनिधिमंडल लेकर आए थे.
साल 2012 फ़्रांसीसी राष्ट्रपति सार्कोज़ी के लिए बहुत मुश्किल था. उन्हें दुबारा चुनाव लड़ना था और उनकी लोकप्रियता लगातार घट रही थी. पाकिस्तान को बेचे पनडुब्बियों का मामला दिनो-दिन गहराता जा रहा था.
ऐसे में भारत द्वारा राफ़ेल ख़रीदने का मामला उनके लिए संजीवनी था. जिस दिन ब्रिटिश अख़बारों में कैमरन का सौदा नहीं हो पाने की ख़बरें थीं, उसी दिन सार्कोज़ी के ख़ुशी से भरे ऐलान का उल्लेख था.
एक फ़रवरी को ‘द गार्डियन’ की पेरिस संवाददाता एंजेलिक क्रिसाफ़िस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि मंत्रियों को ‘शानदार समाचार’ देने से पहले सार्कोज़ी मीडिया को कह रहे थे कि ‘हम इस दिन का इंतज़ार 30 सालों से कर रहे थे.’
यह सौदा फ़्रांस की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और आर्थिक गौरव के लिए बहुत बड़ा मौक़ा था.

2011 में तत्कालीन रक्षा मंत्री गेरार लोंग्वे कह चुके थे कि यदि निर्यात का कोई सौदा नहीं पटा, तो दासो कंपनी 2021 में राफ़ेल का उत्पादन बंद कर देगी.
इस कंपनी समूह के प्रमुख और देश के सबसे धनी लोगों में शुमार सर्गे दासो तब सार्कोज़ी की पार्टी से सीनेटर थे. वे फ़्रांस के प्रमुख अख़बार ‘ला फ़िगारो’ के मालिक भी हुआ करते थे.
साल 2011 में लीबिया पर नाटो हमले में राफ़ेल का इस्तेमाल दुनिया को इस लड़ाकू की क्षमता को दुनिया को दिखाने के लिए किया गया था ताकि उसे बेचने में आसानी हो. इस रवैए की फ़्रांस में ख़ूब आलोचना हुई थी.
इसी रिपोर्ट में यह चर्चा भी है कि कैसे फ़्रांस में राष्ट्रपति की आलोचना इसलिए भी हुई कि वे ब्राज़ील की यात्रा में अपनी पत्नी कार्ला ब्रूनी को लेकर आकर्षण का उपयोग राफ़ेल बेचने के लिए किया था.
साल 2010 के 30 नवंबर को विकीलीक्स द्वारा निकाले गए अमेरिकी दूतावासों के केबलों के ख़ुलासे की सीरिज़ में पेरिस दूतावास के एक केबल में लिखा था कि ब्राज़ील से बेहतर रिश्ते के लिए सार्कोज़ी ब्रूनी के सेलेब्रिटी होने का फ़ायदा उठा रहे हैं.
लीबिया के शासक कर्नल ग़द्दाफ़ी की हत्या के कुछ दिन बाद ‘द इंडिपेंडेंट’ में ब्रैडफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर पॉल रोजर्स ने एंड्रयू फ़ींसटीन की किताब ‘द शैडो वर्ल्ड’ पर लिखते हुए लीबिया के मसले का उल्लेख किया था.
इस सदी के पहले दशक में लीबिया को फ़्रांस और इटली से बहुत साजो-सामान बेचा गया था. जब ग़द्दाफ़ी के ख़िलाफ़ बेनग़ाज़ी में विद्रोह शुरू हुआ, तब भी यह आपूर्ति जारी थी. इस सैन्य सामान का बड़ा हिस्सा फिर नाटो हमलों में तबाह किया गया.
रोजर्स ने हथियारों के कारोबार के चरित्र को रेखांकित करते हुए लिखा था कि फिर यही देश लीबिया के नए शासन को हथियार बेचेंगे.

और आज यही हो रहा है....
ग़द्दाफ़ी और सार्कोज़ी के बीच का मसला इतना ही दिलचस्प है. सार्कोज़ी पर आरोप है कि उन्होंने 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में अपने प्रचार के लिए लीबियाई तानाशाह से 50 मिलियन यूरो लिया था.
इस सिलसिले में पांच सालों की जांच के बाद पिछले साल यानी 2018 में सार्कोज़ी को पुलिस हिरासत में लेकर कुछ दिनों तक लंबी पूछताछ हुई थी. यह मसला अभी लंबित है.
खोजी पत्रकारिता करनेवाली जिस वेबसाइट ‘मीडियापार्ट’ भारत के साथ हुए राफ़ेल सौदे के बारे में अनेक जानकारियां दी है, उसी ने अप्रैल, 2012 में सार्कोज़ी को लीबिया से मिले धन के बारे में ख़ुलासा किया था.
यहाँ पढ़िए इस के बारे में ... https://www.mediapart.fr/en/search?search_word=Dassault+Rafale
इसी के आधार पर कार्रवाई चल रही है. इस मामले में सार्कोज़ी के राष्ट्रपति रहने के दौरान उनके सर्वोच्च अधिकारी रहे क्लाउद ग्वां के ख़िलाफ़ 2015 में चार्जशीट दायर की जा चुकी है तथा अनेक नज़दीकी भी जांच के दायरे में हैं.
‘मीडियापार्ट’ ने बाद में भी इससे जुड़े ख़ुलासे किए थे. इस संबंध में यह ख़बर भी उड़ती रहती है कि सार्कोज़ी के एजेंट ने ही ग़द्दाफ़ी को मारा था. लंदन के अख़बार ‘डेली मेल’ ने 30 सितंबर, 2012 को किसी उत्तरी अफ़्रीकी देश के ‘उच्च पदस्थ सूत्रों’ के हवाले से यह ख़बर छापी थी.
उनका कहना था कि सार्कोज़ी ने ऐसा इसलिए किया था कि ग़द्दाफ़ी से उनके लेन-देन के बारे में पूछताछ न हो सके.
उस समय ग़द्दाफ़ी शासन के ख़ात्मे के बाद लीबिया के प्रधानमंत्री बने मोहम्मद जिब्रिल ने मिस्र के एक टीवी नेटवर्क को बताया था कि विद्रोहियों के बीच किसी विदेशी एजेंट ने घुसपैठ कर ग़द्दाफ़ी को मारा था.
लिबियन ट्रांज़िशनल काउंसिल के विदेशी मामलों के पूर्व प्रमुख रामी अल ओबैदी ने कहा था कि उन्हें यह जानकारी है कि ग़द्दाफ़ी को सैटेलाइट संचार तंत्र के जरिये ट्रैक किया गया था.
पता नहीं,इस मामले में सच क्या है, पर शक़ की एक वजह यह भी है कि ग़द्दाफ़ी को मारनेवाली भीड़ में तानाशाह को कथित रूप से मारनेवाली बंदूक लहरानेवाले 22 साल के बेन ओमरान शाबान की मौत सितंबर, 2012 में पेरिस में हो गयी थी. लीबिया में घायल होने पर उसे उपचार के लिए फ़्रांस ले जाया गया था.
पुरालिया याद है किसी को ??
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