चाय..... चाय...

हर स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही वो जो आवाज़ें आने लगती थी उन आवाज़ों का हमारे पिताजी को बड़ा इंतज़ार रहता था।

उन दिनों गर्मियों की छुट्टियों का मतलब ननिहाल या फिर कोई रिश्तेदार का घर ही हुआ करता था।

करीब महीने पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थी।
एक पोस्ट कार्ड से या अंतर्देशीय से खबर कर दी जाती थी।ज़्यादातर ये काम हमाई अम्मा ही करती थी।ननिहाल रायबरेली में हुआ करती थी।अम्मा एक ही लाइन में पूरी चिट्ठी लिख देती थी। वहां से नाना का जवाब भी उसी अंदाज में आता था।
अम्मा लिखती थी,

"बाबू,
हम 18 जून को साबरमती से आरहे है।
7 जुलाई को वापिसी है।

वहां से नाना का जवाब आता था..

"आ जाओ"
हमाये घर मे चार त्योहार मनाए जाते थे उनदिनो।
होली, राखी, दीवाली और गर्मी की छुट्टियाँ..

नए कपड़े जो मिला करते थे उन दिनों।वो बात अलग है कि दीवाली पर रंगीन पैंट शर्ट और गर्मियों की छुट्टियों के लिए स्कूल की नई यूनिफ़ॉर्म, जिसे कई सालों तक हम स्कूल ड्रेस ही कहते रहे थे।
नीले रंग का पैंट, सफेद बुशर्ट और बाटा वाले फीते वाले काले जूते। दीदी को सफेद जूते भी दिलवाया करते थे पिताजी और दीदी के पुराने सफेद जूते हमारे पास आ आ जाते थे।हर साल बैग बदलने की सहूलियत नहीं थी उन दिनों हमें।
वैसे भी आर्मी वाला बैग इतनी जल्दी फटता भी नहीं था।
तो इस त्योहार की खरीददारी हो चुकने के बाद एक एक दिन भारी पड़ने लगता था इंतज़ार का। बाद के दिनों में तो रिज़र्वेशन वाले थ्री टायर स्लीपर में जाना होने लगा था पर कभी लखनऊ पैसेंजर से भी जाना होता था। हमारे शहर से ही शुरू होती थी तो समझ लीजिए हमारा ही राज होता था।
जाने से पहले होल्डाल को ऊपर टांड़ से उतारा जाता था। धूल साफ की जाती थी, धूप में एक दो दिन दिखाया जाता था। जब उसकी नमी चली जाती थी तो भरना शुरू किया जाता था।

आप मे से कितनो ने देखा है ये होल्डाल ??
पूरी गृहस्थी ही भर के ले जाती थी अम्मा इसमें।
गर्मियों में तो तब भी थोड़ी कसर रह जाती थी पर सर्दियों के सफर में तो भैया, रजाई ,गद्दा तक भर लिया जाता था। दरी भी रख ली जाती थी सीट ऑयर बिछाने को, काहे कि उन दिनों लकड़ी के पट्टे वाली सीट होती थी डब्बो में।
अम्मा घर से रास्ते के  लिए खाना बनाकर लें जाती थी l पर जब ट्रेन में कुछ लोगों को जब खाना खरीद कर खाते देखता था तो बड़ा मन करता हम भी खरीद कर खाए। पर उनदिनो बाहर का खाना, खाना "अच्छी" बात नही होती थी।

टिफ़िन कुछ कुछ ऐसा सा होता था जिसमे साइड में 2 चम्मच भी होते थे।
एक अदद आइटम ये भी हुआ करता था रास्ते का। उन दिनों स्टेशन पर से ही पानी बाहर लिया जाता था इसमें। इतना दिमाग किसी का नही चलता था कि स्टेशन की टंकी की सफाई कब से नही हुई होगी। हज़ार बिसलेरी फेल हैं इस सुराही के पानी के आगे ,अगर आपने इसे रात को भरा हो और सुबह आप उसका पानी पियें..😊
रात के आठ बजे चला करती थी ट्रेन शहर से और कभी कभी नाना खुद लेने आ जाते थे।
और उनका लेने आना समझ लो तूफान आने के बराबर होता था।
सुबह 6 बजे से सबको उठा दिया जाता था और बार बार पूछा जाता था कि पैकिंग हो गयी या नही।

उनकी पैकिंग 12 बजे दोपहर हो जाती थी।
😂😂😂
नाना जी का सबसे ज़रूरी आइटम हुआ करता था उनका पानदान जिसे रास्ते के लिए भरा जाता था। अब चूंकि नाना जी को शहर के काफी लोग जानते थे तो रास्ते मे दूसरे डब्बे से भी लोग "मास्साब" के पास पान मांगने आ जाते थे। और उस ज़माने के लोग मना कहाँ करते थे किसी को..
ये तो आज की पीढ़ी है जिसे बांटना नही आता।
हाँ इनमें नेताओ को छोड़ा जा सकता है, वो तो उस्ताद हैं बांटने में।

तो सहाब करीब 2 बजे दिन का भोजन करके हर आधे घण्टे में उनकी आवाज़ आती थी।

तैयार हो गए.....
कितना टाइम है...
जल्दी करो....

3 बजे वो तैयार होकर अपने मूड़े पर बैठ जाते थे..
5 बजे लछुवा तांगा लेकर आजाता था औए सबसे पहला पान वही बनाता था।
हमको सरोते से बहुत डर लगता था और एक बार नाना के जाने के बाद सुपारी काटने की कोशिश किये तो उँगली काट लिए थे।
हम बस मौका देखते थे और आके हाथ फैला दिया करते थे नाना के आगे..

चमन बहार में हमरी जान बसती थी उन दिनों..
स्टेशन पर पहुंचते पहुंचते ६ बज ही जाता था।
नाना के एक हाथ में छड़ी और एक हाथ में पानदान होता था।
बाहर कुली की जगह उनके पुराने शिष्य सेवा के लिए सिर झुकाए खड़े रहते थे।डब्बे में ६ शिष्य सीट पर चद्दर बिछा कर दोपहर से इंतजार कर रहे होते थे।समान सीधे खिड़की से अंदर कर दिया जाता था।
बत्ती तो तभी जला करती थी जब ट्रेन चले तो उसके पहले वो हाथ से बने पंखे झल झल के ही पसीना सुखाया जाता था।
अब तो कहां दिखते हैं ये सब ..
वक़्त कहां है अब किसी के पास इतना सब करने का ..
पंखा चलाने के लिए एक अदद कंघे का इंतजाम पहले से होता था।
हमारी आंखे बाद उस टिफिन के डब्बे पर लगी रहती थी कि ट्रेन चले और हम हाथ फैलाएं।
अम्मा ४ लोगो के सफर में करीब २० लोगों का खाना बना के चलती थी। ज़्यादातर उबले आलू टमाटर और खूब भुने हुए प्याज की सब्जी रहती थी और साथ में आम का ताजा वाला अचार और प्लास्टिक के एक डब्बे में ५०/६० पूडियां।
सं ७० की पैदाइश वालों को बहुत कुछ याद आ गया होगा। मै लिखने कुछ और चला था पर जाने किस रास्ते पर भटक गया ।
पर आप सब के चेहरों पर मुस्कान देखकर अच्छा सा लग रहा है।

उन्हीं दिनों की कुछ यादें यहां भी ताजा होती रहती है

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ये बिल्लू ,पिंकी आदि तभी मिलता था जब पिताजी होते थे।नाना जी के साथ उनके किस्से ही सुना करते थे।रामायण , महाभारत के ऐसे ऐसे किस्से के पूरा डिब्बा हमारे हिस्से में ही आ जाता था।टीटी बाबू सब काम ख़तम करके अपना टिफिन लेकर आजाते थे और फिर एक बार वो एक बार इंजन दिखाने के गए थे।
साथ ही याद आ गया भाप छोड़ता इंजन और कू कू…की तान देती सीटी। ओरई पर रुकी थी गाड़ी जब नाना इंजन के अंदर ले गए थे,जहां दहकती हुई सुर्ख आग की विशालकाय भट्टी और फावड़े नुमा औजार से उस भट्टी के उदर में सतत कोयला झोंकते कर्मचारी स्मृति में स्थायी हैं।

फिर जब शोले देखी थी तब देखा था..
खिड़की से हाथ बाहर नहीं निकालना है , ये तभी पहली बार बताया गया था।
हाथ नहीं निकालते थे पर मुंह जब भी निकालते थे इंजन दूर से देखने के लिए, तो आंख में वो जो नन्हा कोयले का टुकड़ा जाता था , हाय तौबा मचा लेते थे हम।
फिर अपना रुमाल फूं फूं करके आंख पर लगाती रहती थी अम्मा..
कुल्हड़ की चाय को पीने के बाद उसको पटरियों पर निशाना लगाकर तोड़ने के चक्कर में पिताजी का घूरना तो याद है आजतक पर नाना जी सिर्फ हंस देते थे।

पिताजी के साथ जाने का मज़ा ये था कि उनको हर स्टेशन की खाने की खासियत पता थी और हमारे वारे न्यारे हो जाते थे।
पिताजी को रात की ट्रेन इसलिए भाती ही नहीं थी कि कुछ खाने को मिलेगा नहीं रात को स्टेशन पर सो वो सुबह वाली पैसेंजर का ही टिकट कराते थे।
चिरगांव ३० मिनट में आ जाता था और आते ही कचोड़ी और चाय डब्बे में।
फिर आता था उरई .....
भोपाल लखनऊ लाइन पर अगर कोई चला हो और उसने उरई का रसगुल्ला ना खाया हो ऐसा नामुमकिन है।
मिट्टी की हांडी में , दोने से ढक कर , सुतली का हैंडल बना कर पैकिंग की जाती थी।

मुंह में रखो और गायब.....

पहले एक सिर्फ छप्पर डाला हुआ था पर अब बदल गया है
पुखरायां पर ठोस खोए की गुझिया मिलती थी और उस पर गुलाब की कुछ पत्तियां लगी होती थी। आप एक गुझिया पूरी नहीं खा सकते थे।
और वो खोए की होती थी, खाद और वाशिंग पाउडर की नहीं ....

पिताजी का रुमाल जेब में तैयार रहता था स्टेशन पर मूंगफली लेने के लिए...
एक ठो मशक लेकर भी चलते थे पिताजी ,
जून हुआ तो पानी भर के खिड़की के सरिए से बांध देते रहे और घंटे बाद पानी साला ऐसा कि एस्किमो को भी ज़ुकाम हो जाए...

पर सड़ी हुई गर्मी मेंभी उनकी चाहत चाय की कम नहीं होती थी।
जहां अाई चाय की आवाज़ और उनके कान खड़े हो जाते थे।
और फिर चाय वाले को अलग से हिदायत कि वो यहीं से तीसरे वाले डिब्बे में मिश्रा जू बैठे है , दो ठो उनको भी से के आइए और चाय वाले को ही दैनिक जागरण में लपेट कर पूरी सब्जी दे देते थे मिश्रा जी की चाय को चमकीला बनाने के लिए..
एक पूरी अम्मा चाय वाले के हाथ में चिड़िया बना के थमा देती थी।
बांटे बांटे अम्मा बाद में पूडी वाला डब्बा बंद कर देती थीं। हम भी ध्यान नहीं देते थे। फिर थोड़ी देर बाद भूख लगती थी तब पता लगता था कि पूड़ी तो खत्म पहले ही हो गई थी,अम्मा बांटती ही रह गई थी..

अम्मा बांट के ही पेट भर लेती थी..
आपकी भी ऐसे ही होंगी..
उनका ध्यान रखिएगा..
कालपी का पुल पहले आता था या स्टेशन पहले और पुल बाद में , अब तो याद नहीं पर ये याद है कि कालपी की गुझिया में गुलाब की पंखुड़ी भी लगी रहती थी।
मीठी इतनी कि चाय कड़वी लगने लगती थी पर हमे बेहद पसंद थी।
पिताजी दौड़ के दुकान से लेकर आते थे।कहते थे ये जो ट्रेन में बेच रहे है वो नकली है।
खिड़की वाली सीट के लिए तो जान तक की बाजी लगा देने को तैयार रहते थे।
और अगर किसी मोड़ पर इंजन दिख गया खिड़की से बाहर या दूसरे डिब्बे दिख गए तो हाथ हिलाकर रिश्ते बना लेने की कोशिश शुरू हो जाती थी।

अम्मा खींचती थी,
"कोयला चला जाएगा"...

पर कौन सुनता था ..
तो फिर आज ट्रेन में फिर से बैठा जाए। इसका मतलब ये नही कि हम बरसों से नही बैठे आदि इत्यादि।जब भी भारत आते हैं तो अपने शहर ट्रेन से ही जाना होता है।
अरे हाँ,स्टेशन वाकई में साफ सुथरे दिखने लगे हैं अब।
@PiyushGoyal जी को धन्यवाद और @swachhbharat अभियान को भी।

किया है तो दिख रहा है।
आने वाले समय में ये सफर के किस्से भी बदल जायेंगे।
रेलगाड़ियों में सवारी जाया करेंगी उसी भीड़ में बैठ कर जैसे पहले जाते थे?
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