सुई वाले डागदर बाबू

दवाई प्रतिनिधि की नौकरी ऐसी थी हमारी कि पूरे जिले में आवारागर्दी करनी पड़ती थी , मऊरानीपुर , गुरसराय , गरौठा और भी सारे दूर दराज़ के गावों तक जाना होता था। पिताजी ने हमारे शौक के चलते कावासाकी बजाज दिलवा दी थी बस उसी से डग्गामारी किया करते थे।
वो बात दीगर है कि उसी की वजह से करीब दस सालों बाद जब स्लिप डिस्क हुआ तो सारे डॉक्टर्स ने जवाब दे दिया था की भाई बस करो अब ये "हमारा बजाज हमारा बजाज "
तो हुआ यूँ की उन दिनों एक डॉक्टर साहब हुआ करते थे मऊ में ( नाम को जाने दीजिये ) बहुत नाम था , दूकान शानदार चलती थी। करीब १०० से १२५ मरीज़ सुबह से ले कर रात तक निपटाया करते थे , मिज़ाज़ से बड़े रसिया भी हुआ करते थे और रंगीन पानी के शौक़ीन भी ।
अगर भौजाई के साथ भैया नहीं हुआ करते थे तो भौजाई को कुल्हड़ वाली चाय ज़रूर ऑफर करते थे। अब चूँकि ना तो बोतल टांगने की जगह इतिनि थी और न पलंग सो बाहर चबूतरे से लेकर अंदर दालान तक करीब १०-१५ मरीज़ अपनी अपनी बोतल हाथ में पकड़ कर ग्लूकोस पी रहे होते थे। देखा है कभी आपने ऐसा नज़ारा?
इलाज का तरीका सिंपल था। मरीज़ आया और सीधे पहले एक इंजेक्शन ठोका बाजू में ,फिर पुछा हुआ क्या है , जब तक मरीज़ बताये बताये दूसरा इंजेक्शन कम्पाउण्डर साहब दुसरे बाजू में चिपका दिया करते थे।
फिर डॉकटर साहब कहते थे कि - अरे भाई तुम्हे तो फलाना ढिकाना हुआ है , पीछे मुङो और पीछे मुड़ते ही एक बढ़िया सा इंजेक्शन कूल्हे में , मरीज़ जब उठा तो कहते थे अपने कम्पाउण्डर को ,अरे भाई राम लाल , ज़रा "एक" सुई तो लगा दो , तो आखिरी बाण रामलाल भी चला देता था।
उडता पंजाब टाइप का उड़ता तीर लेने की आदत हमें बचपन से रही है सो एक दिन पूछ लिया कि डॉ साहब ये आप चार चार क्यों लगाते हो एक साथ ?
डॉ साहब,रंगीनपानी वाले मूड में बोले,
बेटा हम मरीज़ को सब तरफ से कवर कर देते है , पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण , देखें साला कहाँ से आता है बैक्टीरिया।
मैंने पैर छुए और बस अपनी दवाई का नाम याद करवा के आ गया था चुपचाप।
सोचा की जो ट्रेनिंग में सिखाया गया था वो कहाँ ले जाऊं ????

अब आप कहोगे तो क्या हुआ कई डॉ लगाते है ४-४ इंजेक्शन। .
तो बात इसमें ख़ास दो थी -
१. सुई लगते वक़्त इस बात का ख़ास धयान रखा जात था की कहीं सीधे शरीर में सुई न टच हो जाये , अर्थात सुई ऊपर से बिना कपड़ा हटाए धाँयसे लगती थी

२. सुई को साफ़ करने के लिए वो यदा कदा मुंह से भाप दे दिया करते थे , जब याद आ जाय तब। .....
कुछ और हैं किस्से जो जल्दी बाचूंगा...
नब्बे के दशक में एनसीआर में हर घर मे विकास पैदा हो रहा था और मैं उसी समय मैं भी बुलंदशहर में कदम रख रहा था।
ट्रेन तो शायद आजभी डायरेक्ट नहीं है दिल्ली से पर उन दिनों शर्तिया नही होती थी और अपने शहर से दिल्ली और वहां से बस अड्डे से रोडवेज वाली बस में अटक कर बुलंदशहर पहंचा करता था।
छोटेसे शहर का रहने वाला अब एक कस्बे में आ चुका था।अपने शहर में वैसे ही काफी क्रांतिकारी ज़िन्दगी बिता कर आ रहा था और वो ज़िन्दगी इस कस्बे के हिसाब से परमाणू बम के बराबर किसी न किसी दिन विस्फोट कर देती थी।
"बाइक" पर "आवारगी"करने वाले कपल को घूरने वाले ज़्यादा बात करने वाले कम थे
दोस्त बन पाना अब मुश्किल से ही था तभी एक नौजवान लड़का टकराया।
ये कहानी है थोड़ी सी उस नौजवान की और फिर उसके साथ हुए एक डागदर बाबू के किस्से की।
उस नौजवान की पूरी कहानी किसी और दिन।
डिस्ट्रीब्यूटर के पास बैठा था वो 88 किलो का,22 बरस का ठहाका..
एक हाथ मे बड़ी गोल्ड फ्लेक, दूसरे हाथ मे कटिंग वाली चाय और भरी गर्मी में इन दौनो के डेडली कॉम्बो की वजह से आया हुआ माथे पर ढेर सारा पसीना।

डिस्ट्रीब्यूटर ने मिलवाया ..
"दीप नाम है इनका"
हाथ मिलाया मैंने तो अगले पल गले लगा हुआ था मैं दीप के...
सीन कट...

साल भर बाद मैं भी गोल्ड फ्लेक लिए बैठा था दीप के साथ।

वो चार सुलगा चुका था चूंकि उसका एक प्रोडक्ट शार्ट एक्सपायरी का पहले से पड़ा हुआ था और अब इतना नज़दीक आ गया था कि मार्किट से लौटने लगा था।

दीप का प्रोबेशन इसी पर निर्भर करता था कि वो माल सब "गल" जाए मार्किट में..
मैं साल भर में बुलंदशहर का पूरा इलाका छान चुका था। ककोड़, झाझर, जेवर, साठा, गुलाओटी, डिबाई... आप नाम लीजिये मैंने सब घूमा हुआ था।

महीने में सिर्फ 4 दिन बुलंदशहर और 20 से 22 दिन "एक्स-स्टेशन" के चक्कर लगा करते थे।

वाहन था कावासाकी RTZ...
दीप की परेशानी जायज़ थी आखिर नौकरी का सवाल था।मैं उसके कमरे पर चारपाई पर पड़ा हुआ था और वो सामने की दीवार से टिका हुआ धुआं छोड़े जा रहा था।
"प्रोडक्ट क्या है ?" मैंने पूछा
"कफ सिरप"
मैंने आंख बंद की और अपनी dr लिस्ट चेक करने लगा..
अचानक एक जगह रुक गया..
Dr शर्मा सामने थे..
ये वही डॉ शर्मा थे जिन्होंने मेरे आड़े वक़्त में मुझे बहुत सपोर्ट किया था।
उनके कुछ अपने हिसाब थे जिन्हें समझना पड़ता था पर वो महीने में 500 से 1000 बोतल मेरी कफ सिरप की निकाल दिया करते थे।
मैं झट से उठा पलंग से और दीप को देखा,
"हो गया काम भाई"

"क्या, कैसे ?"
ढेर सारे सवाल..
चलना पड़ेगा....
उसने मुह बनाया.

वो उस समय जिस कंपनी में था वो इंडिया में रैंकिंग में पहली थी और छोटे मोटे या RMP dr को नही मिला करता था। ऐसा ही नियम था उस कम्पनी का और हमारी कम्पनी में सिखाया गया था कि कोई भी डॉ हो और अगर मरीज हो तो आप ज़रूर मिलिए।
हम मिलते थे...सबसे मिलते थे..
बोला टैक्सी से चलेंगे तो हंसी आ गई हमे।
हमने कहा वहां रोडवेज की बस तक नही जा पाती तुम टैक्सी कैसे ले जाओगे।
फिर मुँह बनाया और प्रोबेशन का याद करके तैयार हो गया।
तय हुआ कि बारिश है तो नस से ही जायँगे और फिर आगे का रास्ता लिफ्ट ले लेंगे।
मैं ऐसे ही जाता था , तीन महीने में एकबार..
स्याना से होते हुए बुगरासी जाना था और फिर जाना था सठला जहां से करीब 3 किलोमीटर दूर पर डॉ शर्मा का अस्पताल था।

फोन से बताया गया कि हम लोग दुसरे दिन आयंगे जिससे वो वहां रहें।

उन दिनों दवाई प्रतिनिधियों की पूछ हुआ करती थी थोड़ी बहुत...

दूसरे दिन का सफर शुरू हुआ रोडवेज से..
सुबह 8 बजे यात्रा शुरू हुई जो रोडवेज बस से स्याना तक, डग्गेमार बस से बुगरासी ,सठला के लिए ट्रेक्टर में बैठकर और वहां से सठला के लिए हमने भैसा गाड़ी ली।
दोपहर एक बजे हम डॉ शर्मा जी के सामने थे।

( सत्ताईस साल हो चुके हैं तो अगर नामों में कु छ गड़बड़झाला हो तो अग्रिम माफी..)
कंपाउंडर साहब ने बताया कि मरीज थोडे और हैं और इंतज़ार कीजिये।
हमने रजिस्टर चेक किया तो सुबह पांच बजे से एक बजे तक करीब 150 मरीज देखे जा चुके थे और करीब पचास के आसपास बाहर अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे।
हमने एक दूसरे की तरफ देखा , भूख भी लगी सी थी सो बाहर सरक लिए..
आधा घण्टे शर्मा जी का कंपाउंडर ढूंढता हुआ आया और बोला साहब ने बुलाया है।

सीधे मतलब की बात पर आते थे।
प्रोडक्ट देखा, एक्सपायर होने में एक महीना ..

बोतल खोल के देखा, सूंघा, उंगली डाली अंदर और बाहर निकाल कर हथेली पर रगड़ा और 2 मिनट बाद बोले," सब ले लूंगा"

दीप की आंखें 😳😳😳😳
5000 बोतल का आर्डर मिल गया था।
पेमेन्ट एक महीने बाद हो गया।
एक पर एक फ्री वाली "डील" दे दी गई।

करीब तीन महीने बाद खबर आई कि माल और चाहिए ।
अब मेरी, दीप और डिस्ट्रीब्यूटर सभी की आंखें 😳😳😳😳😳
माल अब तो "नार्मल" वाला था तो "एक्सपायर" वाली डील देने का मतलब ही नही था। और वो कम्पनी वैसे भी डील फील में यकीन नही करती थी।

बस इतना दीप के बॉस ने पूछा कि एक महीने में रो इतने मरीज भी नही आते फिर बेचा कैसे शर्मा जी ने??
वो चाहते थे कि शायद कोई नया "इंडिकेशन" मिल गया है डर सहाब को जैसे कि वियाग्रा के साथ हुआ था।

वियाग्रा दवाई खोजी गयी थी गंजे पन का इलाज के लिए और साइड इफ़ेक्ट ये पाया गया कि वो कामोद्दीपक भी है। और बाद में साइड इफ़ेक्ट ही इंडिकेशन बन गया।

दीप का बॉस इसी उम्मीद में था..
पूछा ,नही पता लगा ,

दीप अपने बॉस को ले गया,नही पता लगा..

डिस्ट्रीब्यूटर ने घोड़े खोल लिए , नही पता लगा..

एक महीने में 5000 बोतल का हुआ क्या था..??
कुछ दिनों बाद जब दोस्ती सी हो गयी डॉ शर्मा से तो मिलना जुलना बढ़ गया।
वो बुलंदशहर हर महीने आते और मुझे और दीप को बुला लेते।

रात को नहर किनारे बने किसी एक ढाबे पर बियर पी जाती, खाना खाया जाता, गप्पें मारी जाती और फिर उनको बस अड्डे छोड़ कर अपने अपने घर हो लेते।
एक रात डॉ साहब ने फिर से कफ सिरप की बात छेड़ दी।
बोले कम्पनी से मंगा लो ज़्यादा, शार्ट एक्सपायरी वाला ,सब ले लूँगा।

जब वो धूर्त्तता से हंसते थे तो मुँह पूरा खोल लेते और दौनो हाथ सर के पीछे ले जाते थे।

बोले, 10 हजार बोटल ले लूंगा।
मुझे पता था दीप का जवाब पर उस से पहले मैं बोला.
"हो जायेगा डॉ साहब"

दीप मेरा मुँह देखने लगा तो मैंने पैर से टोक कर उसे चुप करा दिया।

"डॉ साहब , काम तो हो जायेगा पर पहले आप ये बताओ, बियर की चौथी बोतल खोलते हुए मैंने कहा, कि आप करते क्या हो उसका ?

डॉ साहब का फिर से बड़ा सा मुँह खुला, सर के पीछे हाथ गए..
आखिरकार पांचवी बोतल के बाद उनको मना लिया गया कि वो हमें राज़ बताएं।

तय हुआ कि लाइव दिखाया जायगा और इसके लिए हमे और दीप को फिर से बस, ट्रेक्टर और बुग्गी की सवारी करनी थी।

अगले शुक्रवार को आजाना कहकर डॉ सहाब बस की सीट पर लुढक चुके थे।
अगले शुक्रवार को हम दौनो आलू के बोरों के साथ लद कर उनके क्लीनिक पहुंचे।
12 बज गया था उस दिन भी और भीड़ ऐसे लगी हुई थी कि फ्री राशन बंट रहा है।
हम लोग बैठ गए और फिर एक मरीज आया।
बुखार था , बदन में दर्द था ।

डॉ साहब ने कफ सिरप की बोतल निकाली, बोतल का लेबल निकाला जा चुका था।

मरीज को बोले," ये नई दवाई अमरीका से मंगाई है।"

फिर उसका ढक्कन खोल के चार बूंद माथे पर लगाई मरीज के, फिर सीधे हाथ पर और उलटे हाथ पर लगा दी।
बगल से एक गोली दी निकाल के और बोले।

बुखार और दर्द इस नई बोतल वाली अमरीका वाली दवाई से जायगा और ताकत इस सफेद गोली से आएगी।

हम आंखें फाडे ये गोरखधंधा देख रहे थे।

मरीज से 100 रुपये डॉ साहब झटक चुके थे।
होता यूँ था कि मरीज को समझाया जाता था कि ये जो चिप चिप करने वाली दवाई है ये बुखार और दर्द कम करेगी।
जबकि काम करती थी वो सफेद गोली जो कि असल मे ब्रूफेन और पेरासिटामोल का कोई कॉम्बिनेशन होता था।
मरीज शिकायत करता था कि दवाई ये चिपचिपा रही है तो डॉ साहब कहते थे ,
"अच्छा ......दवाई ने काम शुरु कर दिया है...
लगाते रहना। हफ्ते भर लगाना है इसको।

पूरे इलाके में डॉ साहब की इस अमरीका वाली दवाई ने तहलका मचा दिया था।

अगला मरीज टूटी हुई हड्डी का था..
कहानी वही फिर दोहराई गई थी..
एक एक्स रे वाले डॉ साहब भी थे।
सुनाऊंगा उनका भी किस्सा वक रोज़......
किस्सा ये भी बुलंदशहर वाले दिनों का है।
सब कुछ नया और अजूबा सा ही लगता था।
काम नया था और दिल में वहीं अरमान कि हम होंगे कामयाब एक दिन ..

ये डॉ साहब ककोड़ के आगे एक कस्बा और है वहां पाए जाते थे।

डॉ कंसल नाम हुआ करता था..
झज्जर नाम था कस्बे का..
बुलंदशहर से करीब ३० कि मी के आसपास
ये हरियाणा वाला नहीं था ये उत्तर प्रदेश वाला झाजर था, जेवर से थोड़ा पहले और हमारी कंपनी के लिए काफी महत्वपूर्ण कस्बा था।

कुल जमा ३ डॉ हुआ करते थे वहां जिनसे हम मिला करते थे।कम्पनी ऐसी हुआ करती थी हमारी कि डॉ साहब इंतजार किया करते थे।
ये हमारे प्रोफेशन का सुनहरा दौर था।
सुनहरा दौर उस समय नहीं लगता था पर आज इस "धंधे" की हालत देखकर वही लगता है।

पर डॉ कंसल आदि को देखकर हमारे सीनियर्स अपने ज़माने को सुनहरा दौर कहते थे।

अगर ये किस्सा मै आज पढ़ रहा होता तो मै भी वही सोचता जो आप पढ़ कर सोचने वाले हैं।

"ये हो ही नहीं सकता"
डॉ साहब का एक एक्सरे क्लीनिक भी था जिसे उनका साला चलाता था।
वो बात अलग है कि वो साले को चलाते थे और डॉ साहब को साले साहब की बहन चलाती थी।

२ साल लग गए थे मुझे ये समझने में कि डॉ साहब की एक्स रे मशीन काम कैसे करती है।
सर्दी ज़ुकाम से लेकर बुखार तक,
पेट दर्द से लेकर घुटने के दर्द तक सब कुछ उनका एक्सरे से शुरू होता था।

मरीज़ आया, पर्ची बनवाई, तकलीफ बताई और साथ ही कंपाउडर मरीज़ को बाजू वाली "दुकान" पर भेज देता था।

वहां पर मशीन अंदर वाले कमरे में "रखी" होती थी।
डॉ साहब का जलवा इतना कि पूरे इलाके में वो पिक्चर वाले डोक साहब पुकारे जाते थे।
आना जाना हर महीने का था तो डॉ साहब कुछ दिनों बाद दोस्त टाइप बिहेव करने लगे थे।
वो बात अलग कि डॉ साहब हमारी उम्र से दुगनी उम्र के थे पर दोस्ती हो गई थी सफेद आलू के चलते।
आप में से ज़्यादातर लोगों को अंदाजा होगा ही कि कुछ छोटे कस्बों में अंडे को सफेद आलू के नाम से बेचा जाता है।
डॉ साहब के घर परिवार में अंडे खाना वर्जित था तो हम जब भी जाते थे ,अंडा करी बना कर ले जाते थे।
डॉ साहब खुश , हमारी सेल ज़्यादा..
बस इतना ही था दिमाग में..
डॉ से दोस्ती होती गई और हमारा उनके यहां वक़्त गुजारना बढ़ता गया।
पहले उनके लिए सफेद अंडा लेकर जाता था फिर एक दिन धीरे से उन्होंने कहा कि देसी कठल खाने का मन है।

देसी कठल यानी गोश्त..

कठल तो बन जाता पर दिक्कत ये थी कि वो जब डब्बा खुलता तो महक जाता और फिर हड्डियों की प्रॉब्लम...
उसका रास्ता डॉ साहब ने ही ढूंढ़ लिया था।
धूपबत्ती और अगरबत्ती जलाकर लंच करने का नायाब तरीका उन्होंने ही इजाद किया था और फिर बाकी का काम हम कर देते थे।

दिन दूनी रात चौगुनी दोस्ती हो गई थी।
हमारे नोटिस में एक बात आने लगी थी अब...
१. बाजू वाली दुकान पर एक्सरे के लिए सिर्फ अनपढ़ मरीजों को भेजा जाता था।

२. पढ़े लिखों को एक्सरे के लिए शहर भेजा जाता था।

३. सारे एक्सरे की फीस बराबर थी बाजू वाली "दुकान" में
एक दिन ये भी ध्यान गया कि मरीज़ बाजू वाले कमरे में जाते थे और एक्सरे रिपोर्ट हाथ में लेकर आ जाते थे।

अब ये तो ज़रा ज़्यादा दिमाग घूमने वाली बात थी। अब इतना तो पढ़ लिख लिए थे कि ये पता हो कि उस ज़माने में रिपोर्ट करीब एक दो घंटे बाद ही मिलती थी।
दाल ज़्यादा काली लगने लगी थी और अब ज़रा अंदर का शैतान बच्चा जाग गया था कि अंदर का खेल क्या है।

डॉ साहब से एक दिन कठल वाले सेशन के बाद पूछा भी पर डॉ साहब टाल गए।

और हम ताका झांकी करने की कोशिश में डॉ साहब को नाराज़ नहीं करना चाहते थे।
फिर एक दिन मौका मिल गया।
हम पहुंचे डॉ साहब के पास और उनके पास आया एक ज़रूरी फोन शहर से।
उनको तो जाना ही था, साथ में अपनी बाजू वाली दुकान के एक्सरे टेक्नीशियन को भी के गए। मालूम पड़ा कि वो असल में डॉ साहब का ड्राइवर ही था।
"क्या प्लान है अब श्रीमान ? डॉ साहब ने पूछा तो बोले हम कि
"आप होकर आइए, हम भी बाकी डॉक्टर्स को "निपटा" कर वापिस होलेंगे।

हमारी भाषा में डॉ को हम निपटाते ही है,

आई मीन निपटाते थे...
मुस्कुराहट हमारे चेहरे पर देख कर दीप समझ गया कि भाई के दिमाग में कुछ खुचड़ आ चुकी है।

डॉ साहब के निकलने से पहले हम निकल लिए और १५ मिनट बाद आकर झांका तो डॉ साहब का चैंबर खाली था पर एक्सरे वाली दुकान खुली थी।

दीप को भेजा अंदर कि देख कर आए कि कोई पहचान वाला तो अंदर नहीं है।
दीप ने आकर ग्रीन सिग्नल दिया और हमने गाड़ी आगे जाकर लगा दी।
दीप को कहा कि बाहर इंतजार करे।
मौसम गर्मी का था और गर्मी इतनी पड़ती थी कि हर ३ ४ किलोमीटर पर सर पर बंधे गमछे को भिगोना पड़ता था तब जा के लू के थपेड़ों से मुक्ति मिलती थी।

उस दिन गमछे का इम्तिहान था..
ब्रेक लेते हुए आप सभी को बता दूं कि ये कहानी आप के पास यहां से आ रही है।
कल को हम भी कहेंगे , अगर कभी किसी ने इंटरव्यू किया कि हमने स्ट्रीट लाइट में सड़क किनारे , बेंच पर बैठ कर टवीटाई की है ( पढ़ाई लिखाई के लिए तो घर पर सही इंतजाम कर रखा था पिताजी ने)

आगे की कहानी अब ..
तो बांध कर गमछे को मुंह पर एक मरीज़ के साथ हम भी हो लिए।
पहले होता ये था कि मरीज का एक्सरे हुआ, डॉ साहब ने रिपोर्ट वाली फिल्म देखी और अपने पास रख ली।
मरीज को दवाइयां अपनी तरफ से देकर चलता किया और रिपोर्ट अपने कंपाउडर के हवाले।

कुछ रिपोर्ट मरीज अंदर से गीली लेकर भी आते थे...
गीली रिपोर्ट वाले मरीजों के चेहरे पर एक बहुत सुकून होता था।
डॉ साहब अपने रुमाल से साफ करते हुए बताते थे कि बिल्कुल "फ्रेश"है रिपोर्ट और ऐसे "फ्रेश" रिपोर्ट दूर दूर तक गाव में कोई नहीं निकाल सकता था।

ये उस इलाके के रहने वालों का विश्वास था...

पूर्नविश्वास...
अंदर जाने की पूरी जुगत बिठा ली गई थी।
हमारा नम्बर आने वाला था कि अपने जूतों पर नजर गई और फिर मरीजों के जूतों पर।
महीने के आखिर दिनों में तनख्वाह का इंतजार करते हुए मेडिकल रेप के जूते फिलहाल अमीर टाइप लग रहे थे और पकड़े जाने की उम्मीद जता रहे थे।
धीरे से उठे और जूते बाहर रख दिए..
नम्बर आया और हमने ज़िंदगी का सबसे बड़ा घोटाला होते हुए अपनी आंखों से देखा।
हमने अपनी आंखों से देखा कि आप किसी के विश्वास का कैसे दिनदहाड़े कत्ल करके साफ बच सकते हैं। कैसे आप एक इंसानियत के काम को हैवानी और लूटपाट में बदल सकते हैं।
गरीब आदमी बहुत लाचार होता है और बीमार गरीब आदमी लाचार नहीं होता वो हारा हुआ होता है।गरीब आदमी के बीमार होने का इंतजार पूरा गांव करता है।

कर्ज देने वाला लाला,जो उसकी ज़मीन और जोरू दोनों पर कब से आंखे लगाए बैठा है और वो पड़ोसी भी जो खेत की मेढ़ को एकफीट बड़ा लेगा उसके जाने के बाद।
बहुत सीधा सादा खेल था डॉ साहब का।
एक्स रे की कोई मशीन नहीं थी अंदर और इसकी जगह एक बड़ा फ्रिज रखा हुआ था कोने में। फ्रिज के सामने एक लकड़ी की कुर्सी और उस पर लगे कुछ रंग बिरंगे तार।
आपमें से शायद किसी ने वो पुराने मॉडल का फ्रिज देखा होगा जिसमें नीचे एक पानी की ट्रे होती है।
मरीज को कुर्सी पर बिठाया जाता था। कुर्सी के हत्थे पर लगे तार उसके आजू बाजू लटका दिए जाते थे। मरीज को चश्मा पहनाया जात था, फ्रिज को झटके से खोला जाता था , उसकी लाइट जलती थी और मरीज को कहा जाता था कि हो रहा है, हो रहा है।

और फिर नीचे ट्रे से एक एक्सरे फिल्म निकाल के दी जाती थी।
मरीज के हाथ में एक्सरे रिपोर्ट होती थी और शक्ल पर तसल्ली ..

उस रिपोर्ट को दूसरे दिन फिर वही इसी पानी वाली ट्रे में पहुंच जाना था। क्या गोरखधंधा था ये ?
मेरी तो काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी।
क्या करता मै ?
चुपचाप उठा, सर झुकाए बाहर आया,
दीप को बताया तो वो पहले तो शांत रहा ..
और फिर वो जो हंसा था तो हंसते हंसते ज़मीन पर बैठ गया था।३ साल की हमारी नौकरी थी , अक्ल थी नहीं कि क्या करें। पुलिस में जा नहीं सकते थे।
सोशल मीडिया था नहीं। कैमरे वाले फोन भी नहीं थे।

हमने अपना गुस्सा अपनी डॉ लिस्ट पर ही निकाल दिया था उस रोज़ घर आकर।

दोस्त को डिलीट कर दिया था..
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